Book Title: Pahud Doha
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 237
________________ से झूठा सुख मिलता है। इन्द्रियाँ तृष्णा रूपी रोग को बढ़ाती हैं, तो फिर इनसे क्या काम लेना चाहिए? ये इन्द्रियाँ तो धर्म के लिए बाहरी साधन हैं। अतः ज्ञानार्थी को यह निर्णय कर निश्चय कर लेना चाहिए कि इन्द्रियसुख सच्चा सुख नहीं है। इन्द्रियों के भोग रोग के समान असार हैं। जैसे केले के खम्भे को छीलने से कहीं भी गूदा या सार नहीं मिलता है; केवल छिलके ही हाथ में आते हैं, वैसे ही इन्द्रियों के भोगों से कभी कोई सार फल नहीं निकलता है। इन्द्रियों के भोगों की तृष्णा से कषाय की अधिकता होती है, लोलुपता बढ़ती है, हिंसात्मक भाव हो जाते हैं, धर्म भाव से च्युत हो जाते हैं, अतएव पापकर्म का बन्ध होता है। आचार्य शिवकोटि कहते हैं कि अध्यात्म में रति स्वाधीनता है, भोगों में रति पराधीनता है। क्योंकि भोगों से तो छूटना ही पड़ता है। स्वात्म-रति में पुरुषार्थी जीव स्थिर रह सकता है। भोगों के भोग में तो अनेक विघ्न आते हैं, किन्तु आत्म-रति विघ्नरहित है। (भगवती आराधना, गा. 1270) आचार्य कुन्दकुन्द कितना उत्तम कहते हैं-"जिसकी दृष्टि अँधेरे में देख सकती है, उस को दीपक की क्या आवश्यकता है? वास्तव में आत्मज्ञान के लिए बाहरी साधन रूप दीपक की आवश्यकता नहीं है। यदि सहज सुख स्वयं आत्मस्वरूप है, तब फिर इन्द्रियों के विषयों की क्या आवश्यकता है? वास्तव में इन्द्रिय-विषय सच्चे सुख की प्राप्ति के लिए किसी प्रकार के साधन नहीं हैं। इंदियपसरू णिवारि वढ मण जाणहि परमत्थु। अप्पा मेल्लिवि' णाणमउ अवरु विडावई सत्थु ॥200॥ शब्दार्थ-इंदियपसरु-इन्द्रियों का फैलाव; णिवारि-रोक कर; वढ-मूर्ख मण-मन (को); जाणहि-जानो; परमत्थु-परमार्थ; अप्पा-आत्मा (को); मेल्लिवि-छोड़कर; णाणमउ-ज्ञानमयी; अवरु-अन्य, दूसरे; विडावइ-कल्पना करते हैं, कल्पित हैं; सत्थु-शास्त्र। . अर्थ-हे मूर्ख! इन्द्रियों के फैलाव में जाते हुए मन को रोक कर परमार्थ को जानो। ज्ञानमय आत्मा को छोड़कर अन्य शास्त्र कल्पित हैं। भावार्थ-आचार्य शुभचन्द्र कहते हैं कि मनुष्यों को इच्छानुसार जैसे-जैसे भोगों की प्राप्ति होती जाती है, वैसे-वैसे उनकी तृष्णा बढ़ती हुई सम्पूर्ण लोक में फैल जाती है। (ज्ञानार्णव, श्लोक 30) ऊपर के दोहे में जो भाव है, वही आचार्य गुणभद्र इस प्रकार प्रकट करते हैं-हे आत्मन्! तू आत्मज्ञान के लोपने वाले विषय-कषायादि में 1. अ, द इंदियपसर; क, ब, स इंदियपसरु; 2. अ, स णिवारि वढ; क, द णिवारियइं; ब णिवारयइ; 3. अ, ब मिलिवि; क, द मिल्लिवि; स मेल्लिवि; 4. अ, ब अवर; क, द, स अवरु; 5. अ, स विडावइ; क, द, ब विडाविउ। पाहुडदोहा : 235

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