Book Title: Pahud Doha
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 235
________________ योग्य है, ज्ञान] विपरीत करने वाले हैं, विष के समान मारने वाले हैं, विषय अर अग्नि समान दाह के उपजाने वाले हैं। तातै विषयनितें राग छोड़ना ही परम कल्याण है। अर शरीर है सो रोगनिका स्थान है, महामलिन, दुर्गन्ध सप्त धातुमय है, मल-मूत्रादिक करि भऱ्या है, वात-पित्त-कफमय है, पवन के आधारतें हलन-चलनादिक करै है, सासता क्षुधा-तृषा की वेदना उपजावै हैं, ए समस्त अशुचिता का पुंज है, दिन-दिन जीर्ण होता चला जाए है, कोटिनि उपाय करकेहू रक्षा किया हुआ मरणकूँ प्राप्त होय है। ऐसी देह तैं विरागता ही श्रेष्ठ है।” (रत्नकरण्डश्रावकाचार, छठा अधिकार, पृ. 258) भला, देह से स्नेह करने से क्या लाभ है? क्योंकि यह सदा ज्यों का त्यों बना नहीं रहता है, विशीर्ण होता जाता है। इस शरीर की अवस्था में प्रति समय परिवर्तन व परिणमन होता रहता है। जिणवरु झायहि जीव तुहु विसयकसायह खोइ। दुक्खु ण देक्खहि कहिं मि वढ अजरामरु पउ होइ° 198॥ शब्दार्थ-जिणवरु-जिनवर; झायहि-ध्याओ; जीव-हे जीव!; तुहु-तुम; विसयकसायहं-विषय-कषायों को; खोइ-खोकर, अभाव कर; दुक्खु-दुःख को; ण देक्खहि-नहीं देखना हो; कहिं मि-कहीं भी; वढ-मूर्ख; अजरामरु पउ-जजर, अमर पद; होइ-होता है। . अर्थ-हे जीव! तू विषय-कषाय को खोकर जिनेन्द्रदेव का ध्यान कर। हे मूर्ख! उससे फिर कभी दुःख नहीं देखना पड़ता है और अजर-अमर पद की प्राप्ति होती . . भावार्थ-आचार्य वट्टकेर का कथन है-जिनेश्वर का वचन ही औषधि है। इस औषध के सेवन से इन्द्रिय-सुख की इच्छा रूपी मल निकल जाता है। यह जिनवचन रूप औषध अमृत के समान है। आत्मध्यान से आत्मा में सर्वांग में अपूर्व सुख की प्राप्ति होती है। वृद्धावस्था तथा मरणरूपी व्याधियों से उत्पन्न हुई वेदनाओं 'का नाश होता है तथा यह जिनवचन रूपी औषध सब दुःखों का नाश करती है। इससे मुनिराज इस औषध का सेवन करते हैं। (मूलाचार, गा. 76) 1. अ झावहि; क, ब, स झायहि; द झावहे; 2. अ तुहु; क, द, ब, स तुहूं; 3. अ विसयकसाया; क, द, स विसयकसायह; ब विसयकसायह; 4. अ देखइ क, द देक्खहि; ब देखहि; स देखह; 5. अ कहिमि; क, द कहिं मि; ब कहमि; स कहं मि; 6. अ जिम सिवपुरि पावेहि; क अजरामरु पउ होइ; द, स जिम सिवपुरि पावेइ। ब प्रति में यहाँ पर दोहा सं. 203 है और दोहा सं. 203 के स्थान पर 204 है। पाहुडदोहा : 233

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