Book Title: Pahud Doha
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 241
________________ अणुदिणु-प्रतिदिन; झावहि-ध्याओ; परमपउ-परमपद; तो एहउ-यही; ववसाउ-व्यवसाय, कारज (है)। अर्थ-हे मूर्ख! इन्द्रियों के विषयों को छोड़कर मोह को भी छोड़। आत्मा-परमात्मा का निशि-दिन ध्यान करने से ही यह कारज हो सकता है। भावार्थ-आचार्य शुभचन्द्र का कथन है कि जो इन्द्रियों के बिना ही अपनी आत्मा में आत्मा से ही सेवन होता है, उसे ही योगीश्वरों ने आध्यात्मिक सुख कहा है। (ज्ञानार्णव, 20, 24) कहा भी है- “जो इन्द्रियों के विषयों की इच्छाओं का दमन करने वाला शरीर में यात्री के समान प्रस्थान करते हुए अपनी आत्मा को अविनाशी समझता है, वही इस भयानक संसार रूपी समुद्र को गाय के खुर के समान लीला मात्र में पार करके शीघ्र ही मोक्षरूपी लक्ष्मी को प्राप्त कर लेता है।” (आ. अमितगति : तत्त्वभावना, श्लोक 38) ___आचार्य जिनसेन का कथन है-"जिस प्रकार नीम के वृक्ष में उत्पन्न हुआ कीड़ा उसके कडुवे रस को पीता हुआ उसे मीठा जानता है, उसी प्रकार संसार रूपी विष्टा में उत्पन्न हुए ये मनुष्य रूपी कीड़े स्त्री-संभोग से उत्पन्न हुए खेद को ही सुख मानते हुए उसकी प्रशंसा करते हैं और उसी में प्रीति को प्राप्त होते हैं।" (आदिपुराण, भा. 1, श्लोक 179-180) . वास्तविकता यही है कि मोह से अन्धे हुए जीवों के हृदय में बाहरी स्त्री, पुत्र, शरीर आदि पदार्थों में अपनापन भासित होता है। आचार्य अमितगति कहते हैं-“धन, परिजन, स्त्री, भाई, मित्र आदि के मध्य कोई भी ऐसा नहीं है जो इस प्राणी के साथ परलोक में जाता हो। फिर भी, प्राणी विवेक से रहित होकर उन सबके विषय में तो अनुराग करते हैं, किन्तु उस धर्म को नहीं करते हैं जो जानेवाले के साथ जाता है।" (सुभाषितरत्नसन्दोह, श्लोक 9) श्रीगुरु जगवासी जीवों को उपदेश देते हुए कहते हैं कि तुम मोह की नींद लेते हुए इस संसार में अनन्त काल बिता चुके हो। अब तो जागो और सावधान होकर भगवान की वाणी सुनो। जिनवाणी का श्रवण कर इन्द्रियों के विषय जीते जा सकते हैं। मेरे पास आओ। मैं तुमको कर्म-कलंक से रहित परम आनन्दमय आत्मा के गुण बताऊँ। श्रीगुरु ऐसे मीठे वचन कहते हैं, किन्तु मोही जीव कुछ भी ध्यान नहीं देते, मानों वे मिट्टी के पुतले हैं अथवा चित्र में बने हुए मनुष्य हैं। (समयसार नाटक, निर्जराद्वार, 12) पाहुडदोहा : 239

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