________________
णिज्जियसासो णिप्फंदलोयणो मुक्कसयलवावारो। एयाइं अवत्थ गओ' सो जोयउ णत्थि संदेहो ॥204॥
शब्दार्थ-णिज्जियसासो-श्वास को जीत लिया; णिफंदलोयणो-निश्चल नेत्र (वाले); मुक्कसयलवावारो-मुक्त सम्पूर्ण व्यापारों (से); एयाइं-ऐसी; अवत्थ गओ-अवस्था को प्राप्त; सो-वह; जोयउ-योग (है); णत्थि-नहीं है (इसमें); संदेहो-सन्देह।
अर्थ-व्यवहार में श्वास को जीत लिया, नेत्र निश्चल हो गये, सभी व्यापार छूट जाने पर जो अवस्था होती है, वह 'योग' है-इसमें कोई सन्देह नहीं है। '
भावार्थ-वस्तुतः निर्विकल्प आत्मज्ञान का नाम योग है। क्योंकि योगी के कर्म से उत्पन्न सुख-दुःख के होने पर भी सुख-दुःख की कल्पना नहीं होती है। आचार्य पद्मनन्दि का कथन है
बोधरूपमखिलैरुपाधिभिर्वर्जितं किमपि यत्तदेव नः। नान्यदल्पमपि तत्त्वमीदृशं मोक्षहेतुरिति योगनिश्चयः ॥
-पद्मनन्दि., सद्बोध. अ. 25 अर्थात्-सभी प्रकार की राग-द्वेष आदि उपाधियों से रहित तथा सम्यग्ज्ञान रूप जो वस्तु है वही हमारी है, हम हैं। इससे भिन्न जो भी वस्तु है, वह हमारी नहीं है। यही तत्त्व है। जो योग का निश्चय है, वही मोक्ष का कारण है। वास्तव में ध्यान से ही प्राणी कर्म-बन्धन को प्राप्त होता है और ध्यान से ही मोक्ष को प्राप्त होता है। उस ध्यान-साधना के लिए श्वास को रोकना, नेत्र निश्चल रखना, ध्यान की मुद्रा में स्थित होना आदि बाहरी साधन कहे गये हैं। यह कोई आवश्यक नहीं है कि इन बाहरी साधनों का सफल अभ्यास होने पर अन्तरंग में ध्यान की उपलब्धि हो। हो सकती है और नहीं भी होती है। वास्तव में योग-मार्ग स्वानुभूतिप्रधान है। निज शुद्धात्मा का अनुभव हुए बिना बाहर में किसी भी केन्द्र पर, शिविर में या विद्यालय से इस विद्या की प्राप्ति नहीं हो सकती। योग-मार्ग विषम है। जो भव्य जीव मोक्ष के अभिलाषी हैं, उनको यह समस्त योग (ध्यान) मार्ग सद्गुरु के उपदेश से समझना चाहिए।(पद्मनन्दिपंचविंशति, वही, श्लोक 26)
__ 'योग' का शब्दार्थ 'जुड़ना' है। लेकिन जैन योग में बाहर की चेष्टाओं की, ध्यान-मुद्रा, नाद-बिन्दु आदि की मुख्यता नहीं है। क्योंकि श्वासोच्छ्वास पर नियन्त्रण करना यह एक भौतिक क्रिया है। जिस प्रकार मन को जीतने के लिए 'हठयोग'
1. अ, ब गउ; क, द, स गओ।
240 : पाहुडदोहा