Book Title: Pahud Doha
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 234
________________ प्राप्त नहीं करता है; किन्तु काम की पीड़ा से दीन हुआ अपने शारीरिक परिश्रम को ही सुख मान लेता है। (भगवती आराधना, 1256-57) आचार्य पूज्यपाद का कथन है कि इस संसार के दुःखों का मूल यह शरीर है, इसलिए आत्मज्ञानी को इसका ममत्व छोड़कर व इन्द्रियों से विरक्त होकर अन्तरंग में आत्मध्यान करना चाहिए। (समाधिशतक, 15) शुद्धात्मा का अनुभव करने से निराकुलता होती है और निराकुलता से सच्चे सुख की प्राप्ति होती है। देखंताह वि मूढ' वढ रमियई सुक्खु ण होइ। अम्मिए मुत्तहँ छिडु लहु तो वि ण विणडई' कोइ ॥197॥ ___ शब्दार्थ-देखताहं-देखते हुए के; वि-भी; मूढ-मूढ़; वढं-मूर्ख रमियइं-रमण करने से; सुक्खु-सुख; ण होइ-नहीं होता है; अम्मिए-ओह! मुत्तहं-मूत्र का; छिदु-छेद; लहु-लघु, छोटा; तो वि-तब भी; ण विणडइ-नहीं नष्ट करता है; कोइ-कोई। अर्थ-हे मोहित मूर्ख! देखने तथा रमण करने से सुख नहीं होता है। अहो! छोटा-सा मूत्र का छेद होने पर भी कोई उसे नष्ट नहीं करता है, सब उससे मूत्र-त्याग करते हैं। ___भावार्थ-यथार्थ में सुख विषयों में, भोगों में नहीं है, किन्तु आत्मा के सहज स्वभाव में है। लेकिन “जैसे कुत्ता हड्डी चबाता है, उससे अपना लहू निकले उसका स्वाद लेकर ऐसा मानता है कि यह हड्डियों का स्वाद है। उसी प्रकार यह जीव विषयों को जानता है, उससे अपना ज्ञान प्रवर्तता है, उसका स्वाद लेकर ऐसा मानता है कि यह विषय का स्वाद है। सो विषय में तो स्वाद है नहीं। स्वयं ही इच्छा की थी, उसे स्वयं ही जानकर स्वयं ही आनन्द मान लिया, परन्तु मैं अनादि-अनन्त ज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ-ऐसा ज्ञान मात्र का अनुभवन है नहीं।” (मोक्षमार्गप्रकाशक, तीसरा अधिकार, पृ. 46) इन्द्रियों के विषयों का स्वरूप स्पष्ट करते हुए पं. सदासुखदासजी कहते हैं____ “अर ये पंच इन्द्रियनि के विषय हैं ते आत्मा का स्वरूप भुलावने वाले हैं, तृष्णाके बधावने वाले हैं, अतृप्तिता के करने वाले हैं। विषयनि की-सी आताप त्रैलोक्य में अन्य नाहीं है। विषय हैं ते नरकादि कुगति के कारण हैं, धर्मः पराङ्मुख करै हैं, कषायनिकूँ बधावने वाले हैं, अपना कल्याण चाहैं तिनकूँ दूर ही तै त्यागने 1. अ, क, द, स देखताह; ब देखताहि; 2. अ, क, द, स मूढ; ब हड; 3. अ, स रमियइ; क, द, ब रमियइं; 4. अ अमिए; क, द, स अम्मिए; ब अमिय; 5. अ, ब, मुत्तह; क, द, स मुत्तह 6. अ, क, द, स ण; ब न; 7. अ विरचइ; क, द, स विणडइ; ब विनडइ। 232 : पाहुडदोहा

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