Book Title: Pahud Doha
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 219
________________ सयलीकरणु ण जाणियउ पाणियपसण्णह भेउ। अप्पापरहु ण मेलियउ गंगडु पुज्जई देउ ॥185॥ शब्दार्थ-सयलीकरणु-सकलीकरणु (शुद्धि का विधान, पद्धति); ण-नहीं; जाणियउ-जाना; पाणियपसण्णह-पानी की निर्मलता का; भेउ-भेद; अप्पापरहु-आपा-पर का, अपना-पराया का; ण-नहीं; मेलयउ-मेल किया; गंगडु-क्षुद्र; पुज्जइ-पूजता है; देउ-देव (को)। अर्थ-जो क्षुद्र देव को पूजता है, वह न तो सकलीकरण जानता है तथा न जल की निर्मलता का रहस्य पहचानता है और न आत्मा एवं पर (भावों) का मेल समझता है। भावार्थ-वास्तव में जिनमत की परम्परा शुद्धता को माननेवाली है। यह शुद्धता उस सकलीकरण की भाँति है जिसमें प्रतिष्ठाचार्य भूमि, पात्र, जल, पूजा-सामग्री, शरीरादि की मन्त्रों द्वारा शुद्धि करता है। इसी प्रकार निज शुद्धात्म स्वभाव के साधन द्वारा दर्शन, ज्ञान, चारित्र, भावमन आदि की शुद्धता प्राप्त करना ही शुद्धाम्नाय है। शुद्धाम्नाय में परमार्थभूत सच्चे देव, शास्त्र, गुरु और धर्म की पूजा होती है। धर्म वीतराग भाव में है, अतः जहाँ राग का लक्ष है वहाँ शुद्धता नहीं हो सकती। पूजा, वन्दना वीतरागता की है; राग की नहीं। जहाँ आत्मश्रद्धा नहीं है, अज्ञान और असंयम है, वहाँ पवित्रता का अभाव है। यदि इतिहास की दृष्टि से देखा जाए तो तीर्थंकर महावीर का श्रमणसंघ अत्यन्त प्रसिद्ध था। वह रत्नत्रय से सहित था। उसमें चारों वर्गों के श्रमणों का समूह रहता था। (दे. तत्त्वार्थवार्तिक, 9, 24)। उसे मूलसंघ के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त है। 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' में उल्लेख है कि भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् उनका यह मूलसंघ 162 वर्ष के अन्तराल में होने वाले गौतम गणधर से लेकर अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी तक अविच्छिन्न रूप से चलता रहा। श्रुतज्ञानियों के अस्तित्व की अपेक्षा वी.नि.सं. 683 तक यह परम्परा अविरल ज्यों की त्यों अखण्ड बनी रही। परवर्ती काल में अनेक संघ स्थापित हो गये। लेकिन उन सभी संघों का उद्भव मूलसंघ से हुआ। अतः स्पष्ट है कि मूलसंघ सभी संघों का संस्थापक है और इसीलिए उसका नाम मूल या आदि संघ है। इसे ही 'शुद्धाम्नाय' कहा जाता है। 'शुद्धाम्नायं' शब्द का प्रयोग तीन अर्थों में गर्भित है-(1) परमार्थस्वरूप सच्चे देव, 1. अ पाणिपसण्णह; द पाणियपण्णहं; क पाणिधपण्णहं; व पाणियपण्णह; स पाणियपसण्णह; 2. अ, ब, द, स मेलियउ; क मेलयउ; 3. अ, ब पुज्जउ; क, द, स पुज्जइ। पाहुडदोहा : 217

Loading...

Page Navigation
1 ... 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264