Book Title: Pahud Doha
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 231
________________ देइ-नहीं देता है; अणुदिणु-प्रतिदिन; झायइ-ध्याता है; देउ जिणु-जिनदेव को; सो-वह; परमप्पउ-परमात्मा; होइ-होता है। अर्थ-जो पुराने कर्म को खपाता है और नये कर्मों को आने से रोक देता है। तथा प्रतिदिन जिनवर का ही ध्यान करता है, वही परमात्मा होता है। भावार्थ-आचार्य अमृतचन्द्र का कथन है कि जो निर्विकार चैतन्यचमत्कार मात्र आत्मस्वभाव को और उसे विकृत करने वाले बन्ध के स्वभाव को जानकर बन्धों से विरक्त होता है, वही समस्त कर्मों से मुक्त होता है। (समयसार, गा. 293) जीव के अशुद्ध भावों से निरन्तर कर्मों का बन्ध होता है और शुद्ध भाव से संवर-निर्जरा होती है। जैसे सरिता या समुद्र में स्थित नाव में छेद होने पर उसमें जल भर जाता है और छेद के बन्द कर देने पर आता हुआ पानी रुक जाता है। इसी प्रकार मन और इन्द्रियों के द्वारों से आते हुए आस्रव (राग, द्वेषादि) का रुक जाना संवर है। प्रथम सम्यग्दर्शन से मिथ्यात्व नाम के आस्रव के रुक जाने से संवर होता है। पं. सदासुखदासजी के शब्दों में “सम्यग्दर्शन करि तो मिथ्यात्व नाम आस्रवद्वार रुकै है। ... कषायनिळू जीति दशलक्षण रूप धर्म के धारने तैं चारित्र प्रगट होने तैं कषायनि के अभाव” संवर होय है। ध्यानादिक तप” स्वाध्यायतपते योगद्वारै कर्म आवतै रुकै हैं, यारौं संवर है। जातें गुप्तिमय, पंचसमिति, दशलक्षणधर्म, द्वादश भावना, द्वाविंशति परीषहळू सहना, पंच प्रकार चारित्र पालना इन करि नवीनकर्म नाहीं आवै है।" (रत्नकरण्डश्रावकाचार टीका, छठा अधिकार, पृ. 423) तप से संवर और निर्जरा दोनों ही होते हैं। ध्यानादि तप से पुराने कर्म झड़ जाते हैं और नये कर्मों का आना रुक जाता है। ज्ञान मात्र आत्मा में लीन होना, उसी से सन्तुष्ट होना और उसी से तृप्त होना परमध्यान है। (समयसार, गा. 206 की टीका) आते हुए कर्मों के रोकने का एक मात्र उपाय है कि जो जीव पहले तो · राग-द्वेष-मोह के साथ मिले हुए मन-वचन-काय से शुभाशुभ योगों से अपनी आत्मा को भेदज्ञान के बल से चलायमान नहीं होने दे, फिर उसी को शुद्ध दर्शन-ज्ञानमय आत्मस्वरूप में निश्चल करे तथा समस्त भीतरी-बाहरी परिग्रह से रहित होकर कर्म-नोकर्म से भिन्न अपने स्वरूप में एकाग्र होकर उसी का अनुभव/ध्यान करे। इस प्रकार आत्मानुभवपूर्वक ध्यान करने से अल्पकाल में ही समस्त कर्मों से मुक्त होकर शुद्धात्मा को प्राप्त कर लेता है। (आ. अमृतचन्द्र : समयसार, गाथा 187-189 की टीका) वास्तव में भेद-विज्ञान होने पर ही शुद्धात्मा का अनुभव होता है और शुद्धात्मा के अनुभव से आते हुए नये कर्म रुकते हैं और आस्रव के रुकने से संवर होता है। संवरपूर्वक पुराने कर्म खपते हैं। कर्मों के झड़ने से निर्जरा होती है और निर्जरा होने पर अनन्त काल के लिए परमसुख की प्राप्ति होती है। पाहुडदोहा : 229

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