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ऐसे ही पण्डित नामधारी को सम्बोधित कर यहाँ कहा जा रहा है कि तुम ऊँचे पण्डित भी भूसे को कूटने में लगे हुए हो; जबकि तुम्हें अनाज प्राप्त करने के लिए अनाज को कूटना चाहिए था। आचार्य अमृतचन्द्र के शब्दों में
व्यवहारविमूढदृष्टयः परमार्थं कलयन्ति नो जनाः। तुषबोधविमुग्धबुद्धयः कलयन्तीह तुषं न तण्डुलम् ॥
-समयसार कलश, 242 ___ अर्थात्-जो धान के छिलकों पर मोहित हो रहे हैं, वे छिलकों को ही जानते है, चावल को नहीं जानते; उसी प्रकार जो व्यवहार में मोहित हैं; परमार्थ को नहीं जानते हैं, वे सदा शुद्धात्मानुभव से रहित रहते हैं।
वास्तव में जो व्यवहार क्रिया-काण्ड मूढ़ता में मग्न हैं, वे मनुष्य परमार्थ स्वरूप शुद्धात्मा का अनुभव नहीं कर सकते। जिनको चावल के छिलकों में चावल का ज्ञान है, वे भूसी ही प्राप्त करते हैं। पण्डितप्रवर टोडरमलजी उदाहरण से समझाते हुए कहते हैं-“जैसे चावल दो प्रकार के हैं-एक तुष सहित है और एक तुष रहित है। वहाँ ऐसा जानना कि तुष है वह चावल का स्वरूप नहीं है; चावल में दोष है। कोई समझदार तुषसहित. चावल का संग्रह करता था, उसे देखकर कोई भोला तुषों को ही चावल मानकर संग्रह करे, तो वृथा ही खेदखिन्न होगा। वैसे चारित्र दो प्रकार का है-एक सराग है, एक वीतराग है। वहाँ ऐसा जानना कि जो राग है वह चारित्र का स्वरूप नहीं है, चारित्र में दोष है। तथा कितने ही ज्ञानी प्रशस्त राग सहित चारित्र धारण करते हैं, उन्हें देखकर कोई अज्ञानी प्रशस्त राग को ही चारित्र मान कर संग्रह करे, तो वृथा खेदखिन्न ही होगा।” (मोक्षमार्गप्रकाशक, सातवाँ अधिकार, पृ. 244-245)
अक्खरडेहि जि गव्विया कारणु ते ण मुणंति। वंसविहीणउ डोमु जिम सिरहत्थडा' धुणंति ॥87॥ _शब्दार्थ-अक्खरडेहि-अक्षरों, शब्दों (पर) जि-जो; गव्विया-गर्वित हैं, गर्व किया है; कारणु-कारण; ते ण मुणंति-वे नहीं समझते हैं; वंसविहीणउ-वंशविहीन, नीच कुल (के); डोमु जिम-डोम (के) जैसा; सिरहत्थडा-सिर हाथों (से); धुर्णति-धुनते हैं। ___ अर्थ-जो शब्दों (को पढ़कर) गर्व करते हैं, वे मूल भाव (भावार्थी नहीं समझते
1. अ, क, द अक्खरडेहिं; ब, स अक्खरडेहि; 2. अ, क, द, स कारण; ब कारण; 3. अ, क, द, व वंसविहत्था; स वंसविहीणउ; 4. अ, क, द परहत्थडा; ब परमत्थाणुः स सिरहत्थडा।
पाहुडदोहा : 111