Book Title: Pahud Doha
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 215
________________ गया है, उस शुद्धभाव को प्राप्त करो । 'परमात्मप्रकाश' में कहा गया है कि वीतरागी प्रभु की यह आज्ञा है कि इस जीव भव भव में जिनराज स्वामी और सम्यक्त्व इन दो को प्राप्त नहीं किया है। दूसरे शब्दों में जिनदेव का परिचय न होने से इसने कभी स्वभाव सेवन नहीं किया है, इसलिए आज तक सम्यग्दर्शन नहीं हुआ है। सम्यग्दर्शन होने पर ही सच्चे परमात्मा से वास्तविक परिचय होता है। शुद्धात्म-ज्ञान-दर्शन शुद्ध भाव रूप हैं । जो शुद्धात्म भावना से विमुख है, वह निरन्तर विषय - कषाय का सेवन करता हुआ व्याकुल ही रहता है । अतः शुद्ध उपयोग की भावना निरन्तर भाते रहना चाहिए जो शुद्धात्मानुभूति की निर्विकल्प दशा में ही होती है । वामय किय अरु दाहिणिय' मज्झइ हवइ णिराम । तहिं गामडा जु जोगवई' अवर वसावइ गाम ॥182 ॥ शब्दार्थ-वामिय-बायें; किय- की गई; अरु - और; दाहिणिय - दाहिने; मज्झइ-बीच में; हवइ - है ( होता है); णिराम - निराम, खाली, सूना; तहिं—वहीं (उसमें); गामडा - गाँव (में); जु - पाद - पूरक शब्द जोगवइ - हे योगपति; अवर–अपर, दूसरा; वसावइ - वसाया जाता है; गाम - गाँव । अर्थ- बायीं ओर और दाहिनी ओर गाँव बसाया, किन्तु बीच में सूना ही रखा। इसलिए हे योगी! वहाँ पर एक गाँव अन्य बसाइए । भावार्थ - योगशास्त्र में 'वाम' शब्द इड़ा और 'दक्षिण' पिंगला नाड़ी के अर्थ में उल्लिखित है । किन्तु यहाँ पर अर्थ यह है कि मनुष्य अपने दायें-बायें जो इन्द्रियों के विषय हैं उनमें तो चित्त लगाता है, अनुरक्त होता है, किन्तु इन दोनों से भिन्न अपने ही बीच में जो परमात्मा (भगवान् आत्मा) निवास करता है, उसकी ओर बिल्कुल ध्यान नहीं देता। योगी वही है जो ज्ञानानन्द स्वभावी भगवान् को समझ करं, अनुभव कर आनन्द लोक में प्रवेश करता है, जिससे अतीन्द्रिय ज्ञानानन्द का गाँव बस जाता है और यह जीव उसी में रम जाता है । वास्तव में मुनि लौकिक कार्यों से उदासीन रहते हैं । वे ख्याति लाभ, पूजा की अभिलाषा नहीं रखते । आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं जो मुनि व्यवहार में सोता 'हैं, वह आत्म - कार्य में जागता है और जो व्यवहार में जागता है, वह आत्म-कार्य में सोता है । उनके ही शब्दों में 1. अ वामिय अरु किय; क, द, स वामिय किय अरु; ब वामिय किउ अर; 2. अ दाहिणइ; क, द, स दाहिणिय; ब दाहणिय; 3. अ, ब, स मज्झइ; क, द मज्झइं; 4. अ, स हवइ; क, द, ब वहइ; 5. अ, ब तहि; क, द, स तहिं 6. अ जोगुवइ, क, द, ब, स जोगवइ । पाहुडदोहा : 213

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