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(प्राप्त हो) गया; ता-तब; वढ-मूर्ख; सिद्धि-(उसे) सिद्धि; कहति-कहते
हैं।
अर्थ-हे मूर्ख! सिद्धान्त, पुराण तथा वेदों को पढ़ने से भ्रान्ति नहीं मिटती। जब परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है, तब वही मूढ सिद्ध कहलाता है। भाव यह है कि आत्मा ही पुरुषार्थ करके परमात्मा होता है। सच्चिदानन्द परम ब्रह्म की उपलब्धि किसी के अनुग्रह या परावलम्बन से नहीं, किन्तु अपनी योग्यता से जीव प्रत्येक सिद्धि को प्राप्त करता है।
भावार्थ-चारों अनुयोगों का समन्वित ज्ञान-सच्चा श्रद्धान और न्यायज्ञान, आगम और अध्यात्म का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है। क्योंकि प्रत्येक वस्तु अनेकान्त स्वरूप अनन्तधर्मात्मक है। उत्पाद, व्यय, ध्रुव सहित पदार्थ सत्ता रूप है। उसे समझने के लिए स्यात् मुद्रा की छाप से चिन्हित आगम और परमागम श्रुतज्ञान प्रमाण है। प्रमाण का विषय अनेक धर्मात्मक वस्तु है। प्रमाणज्ञान के द्वारा प्रकाशित पदार्थ का विशेष रूप से. निरूपण करने वाला नय है। प्रमाण और नय ज्ञान की ही पर्यायें हैं। प्रमाण सर्वदेश है और नय एकदेश है। पदार्थों का ज्ञान प्रमाण और नय से होता है। वास्तव में सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है। अन्य भारतीय दर्शनों में ज्ञान का सच्चा निर्णय नहीं है। इसलिए सभी दर्शनों ने 'प्रमाण' की परिभाषा अलग-अलग की है। बौद्धों ने 'प्रमाण का लक्षण' अविसंवादी ज्ञान को माना है, मीमांसकों ने अनधिगत तथा अभूतार्थ निश्चायक ज्ञान को प्रमाण माना है, प्रभाकर-मीमांसकों ने अनुभूति को प्रमाण माना है तथा नैयायिकों ने प्रमा के प्रति जो करण अर्थात् साधन है उसे प्रमाण माना है। कोई इन्द्रिय व्यापार, कारक-साकल्य, सन्निकर्ष, ज्ञातृव्यापार आदि को प्रमाण मानता है। इसी प्रकार निर्विकल्प प्रत्यक्षवाद, शब्दाद्वैतवाद, शून्यवाद, अचेतनवाद, साकारज्ञानवाद, भूतचैतन्यवाद, ज्ञानपरोक्षवाद, आत्मपरोक्षवाद, ज्ञानान्तर वेद्यवाद, स्वतः प्रामाण्यवाद, यौगाचार, चित्राद्वैत, माध्यामिक, सर्वथापरोक्ष, प्रत्यक्ष, अपूर्व अर्थग्राही, स्मृतिप्रमोष, ब्रह्मवाद आदि अनेक प्रमाण कहे गए हैं। परन्तु जैनदर्शन पूर्ण रूप से अपने आपको और पदार्थ को जानना प्रमाण का लक्षण कहता है। प्रमाण सर्वांग वस्तु को ग्रहण कर कहता है। प्रमाण और नय के स्वरूप का निश्चय होने पर वस्तु का निश्चय होता है। कहा भी है
गहिओ सो सुदणाणे पच्छा संवेयणेण झायव्यो।
जो ण हु सुयमवलंबइ सो मुज्झइ अप्पसब्भावे ॥ बृ. नयचक्र गा. 349 अर्थात्-पहले श्रुतज्ञान के द्वारा आत्मा को ग्रहण करके, पीछे स्व-संवदेन के द्वारा उसका ध्यान करना चाहिए। जो श्रुत (भावश्रुत) का अवलम्बन नहीं लेता, वह आत्मा के सद्भाव में मूढ़ ही बना रहता है।
वास्तव में प्रत्यक्ष स्वसंवेदनगम्य स्वानुभूति तथा मतिश्रुत ज्ञान प्रमाण है।
154 : पाहुडदोहा