Book Title: Pahud Doha
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 203
________________ भी उड़ते देर नहीं लगती है। अतः मन की चपलता असीम है। ऐसे मन को जीतने का एक मात्र उपाय है-भेद-विज्ञान। आचार्य शुभचन्द्र के शब्दों में पृथक्करोति यो धीरः स्वपरावेकतां गतौ। स चापलं निगृह्णाति पूर्वमेवान्तरात्मनः ॥ज्ञानार्णव, 20, 13 अर्थात्-जो धैर्यवान एकता को प्राप्त हुए आत्मा और शरीरादि पर वस्तु को अलग-अलग करके अनुभव करते हैं, वे पहले अन्तरात्मा होकर मन की चंचलता को रोक देते हैं। वास्तव में मन को जीतने के लिए प्रथम सांसारिक पर वस्तु से मोह हटाना पड़ता है। संसार के सभी पदार्थों से मोह हट जाने पर मन एकाग्र हो जाता है। जब तक संसार में एक तृण की भी अभिलाषा है तब तक धर्म ध्यान नहीं होता। कहा भी है पवन वेग हू तैं प्रबल, मन भरमै सब ठौर। याको वश करि निज रमैं, ते मुनि सब शिरमौर ॥ अर्थात्-पवन की गति से भी अधिक प्रबल मन सभी स्थानों पर भरमाया हुआ है। जो साधु, मुनि इसको वश में करके निज शुद्धात्मा में रमण करता है, वह मुनि सर्वश्रेष्ठ है। अखइ णिरामइ परमगई. मणु घल्लेप्पिणु मिल्लि। तुट्टेसइ मा भंति करि आवागमणहं वेल्लि' 0172॥ शब्दार्थ-अखइ-अक्षय; णिरामइ-निरामय; परमगइ-परमगति, शिव-सुख (में); मणु-मन को; घल्लेप्पिणु-घाल कर, डाल कर, लगा कर; मिल्लि-छोड़ दे, विश्राम ले ले; तुट्टेसइ-टूटेगी; मा मत; भंति, भ्रान्ति करि-करो; आवागमणहं-आवागमन की; वेल्लि-वेल। .. अर्थ-अक्षय, निरामय, परमगति में मन को फेंक कर छोड़ दे। आवागमन की बेल टूट जाएगी, इसमें भ्रान्ति मत कर। भावार्थ-ज्ञानी पुरुष ऐसा विचार करता है कि मैं सदैव अकेला हूँ। अपने ज्ञान-दर्शन रस से भरपूर अपने ही आश्रय हूँ। भ्रमजाल का कूप मोहकर्म मेरा स्वरूप नहीं है। मेरा स्वरूप तो शुद्ध चैतन्य सिन्धु है। वास्तव में शरीर, वाणी और मन 1. अ, क स अखइ द अखय; ब अक्खड़; 2. अ परमगई; क, द, स परमगइ; व परमगई; 3. अ, ब, स आवागमणह; क, द आवागमणहं; 4. अ मिल्लि: क. द स वेल्लि: ब बेल्लि। ___पाहुडदोहा : 201

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