Book Title: Pahud Doha
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 212
________________ के स्पर्श तैं होय है। मल के, मूत्र के, हाड़ के, कफ के, चाम के, रस के, रुधिर के, माँस के, वीर्य के, नसों के, केश के, नख के, कफ के, लार के, नासिका के मल, दन्तमल, नेत्रमल, कर्णमल के स्पर्श मात्र तँ अपवित्र होय है। द्वीन्द्रियादिक प्राणीनि के . देह का सम्बन्ध बिना कोऊ अपवित्र वस्तु ही लोक में नहीं है। देह का सम्बन्ध बिना लोक में अपवित्रता कहाँ तें होय?" (रत्नकरण्डश्रावकाचार टीका, पृ. 420) वास्तव में अपवित्रता शरीर का स्वभाव है। इसलिए तीनों लोकों में जितना जल है, उस सब से अकेले शरीर का स्नान कराया जाए, तो भी वह शुद्ध नहीं हो सकता है। दिगम्बर साधु-सन्त ही पवित्र होते हैं। उनकी पवित्रता रत्नत्रय के कारण . कही गई है। इसलिए उन्हें स्नान नहीं करना पड़ता है। जो पई जोइउँ जोइया तित्थई तित्थ भमेइ। सो सिउ पई सिहं हिंडियउ लहिवि ण सक्किउ तोइ ॥180॥ शब्दार्थ-जो; पइं-तुम; जोइउं-दर्शन के लिए; तित्थई-तीर्थ से; तित्थ-तीर्थ; भमेइ-घूमते (हो); सो-वह; सिउ-शिव (परमात्मा); पइं-तुम्हारे; सिहं-साथ; हिंडियउ-घूमा है; लहिवि-प्राप्त कर; ण सक्उि -नहीं सके; तोइ-तुम। __ अर्थ-हे योगी! जिसे देखने के लिए तुम तीर्थों तीर्थ भ्रमण करते हैं, वह शिव भी तुम्हारे साथ भ्रमण करता है, फिर भी तुम उसे नहीं पा सके। भावार्थ-इस देश में मन्दिर, तीर्थ, ईश्वर, गुरु आदि का इतना अधिक महत्त्व है कि उनकी पूजा-उपासना से लोग कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। लेकिन यह तथ्य है कि इनको मानने या पूजने से न तो धर्म होता है और न ये कोई धर्म की क्रियाएँ है। धर्म तो आत्मा का स्वभाव है। इसलिए उस शुद्धात्म स्वभाव को उपलब्ध होना वास्तविक धर्म है। शुद्धात्मा के प्राप्त हो जाने पर फिर प्राप्त करने के लिए कुछ नहीं रहता है। क्योंकि शुद्धात्मा ज्ञानस्वभावी वस्तु है। शुद्धात्मा के पाते ही ज्ञानानन्द की सहज उपलब्धि हो जाती है। जिसे परम आनन्द का सहज संवेदन होता है, जहाँ भूख-प्यास, जन्म-मरण कुछ भी नहीं है, उसे अब और क्या चाहिए? वह शुद्धात्मा कहीं बाहर नहीं है, तुम्हारे पास में ही है। शुद्धात्मा का ही दूसरा नाम शिव है। शिव का अर्थ है-कल्याण, आत्महित। 1. अ, ब पइ; क, द, स पइं; 2. अ, ब जोयउ; क, द जोइउं; स जोइउ; 3. अ, ब तित्थइ। क, द, स तित्थई; 4. अ, क, द, स भमेइ व भमइ; 5. अ पइसिउ; क, द पई सिहं; व सिवपइ; स पई सहु; 6. अ, ब लहविः क, द, स लहिवि। मुद्रित प्रति में तीसरा चरण है-सिउ पई सिहंह हिंडियउ 210 : पाहुडदोहा

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