Book Title: Pahud Doha
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 210
________________ जइ एक्कहि पावीसि पिउ' अक्किय कोडि करीसु। णं अंगुलि पय पयडणई जिम सव्वंगइ सीसु ॥178॥ शब्दार्थ-जइ-यदि; एक्कहि-एक, एक ही; पावीसि-प्राप्त हो (कर लँ); पिउ-प्रिय (तम) को; अक्किय-अपूर्व कोडि-कुतूहल; करीसु-करूँगी; णं-मानो, ननु; अंगुलि–अंगुली; पय-पद, पैर, पयडणइं-प्रकट होने से; जिम-जिस प्रकार; सव्वंगइ-सभी अंग; सीसु-सिर (तक)। अर्थ-यदि एक प्रिय को प्राप्त कर लूँ तो अपूर्व कौतुक करूँगी। निश्चय से पैर की एक अँगुली के प्रकट हो जाने पर सिर तक सर्वांग प्रकट हो जाता है, उसी प्रकार प्रिय के प्रकट होते ही वीतराग निर्विकल्प समाधि प्रकट हो जाएगी। भावार्य-लिपिकारों की असावधानी से पाठ भ्रष्ट हो गया है। फिर भी भाव यह समझना चाहिए कि संसार में भूली हुई आत्मा जब अपने प्रिय परमात्मा को प्राप्त कर लेती है, तब अनेक तरह के माहात्म्य प्रकट हो जाते हैं। यहाँ पर अपने शुद्ध स्वभाव (ब्रह्म) के सन्मुख आत्मा का परमात्मा के लिए कथन है। आत्मा का ध्येय निरंजन परमात्मा की प्राप्ति है। परमात्मा की प्राप्ति समाधि से होती है। समाधि निर्विकल्प होती है। परमात्मा का आश्रय प्राप्त कर ही कोई आत्मा सुख-शान्ति को उपलब्ध हो सकती है। समाधि की दशा में परमात्मा के प्रकट हो जाने पर परमानन्द की अनुभूति होती है। वास्तव में परमपद या अविनाशी मोक्षपद की प्राप्ति परमात्मा के प्रसाद से होती है। लेकिन वह किसी व्यक्ति या अन्य किसी महान् शक्ति का कार्य न होकर स्वभाव के आश्रय से पुरुषार्थ से प्रकट होता है। अतः केवल आत्मा में ही नहीं, सभी द्रव्यों में अपनी शक्ति या योग्यता से कार्य होता है। इसलिए एक का महत्त्व है। एक परम ब्रह्म को जान लेने पर सब जीवों का ज्ञान हो जाता है। यथार्थ में चैतन्य का तो एक चिन्मय ही भाव है। आचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों में अहमेक्को खल सुद्धो णिम्ममओ णाणदंसणसमग्गो। तम्हि ठिदो तच्चित्तो सव्वे एदे खयं णेमि ॥समयसार गा. 73 अर्थात्-ज्ञानी विचार करता है कि निश्चय से मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ। ममतारहित हूँ, ज्ञान-दर्शन से पूर्ण (वस्तु) हूँ। अपने इस स्वभाव में रहता (अनुभूति में लीन) हुआ मैं इन सभी क्रोधादिक आस्रवों का क्षय करता हूँ। 1. अ व क, द, ब, स जइ; 2. अ, ब, स एक्कहिं; क, द इक्क हि; 3. अ, क, द पय; व यह; स पिउ; 4. अ अक्कीय; क, द अंकय; व अंकिय; स अक्किय; 5. अ कोडु करासि; क, द, स कोडि करीसुः 6. अ णह; क, द, ब, सणं; 7. अपयडणइ क, द, ब, स पयडणइं। 208 : पाहुडदोहा

Loading...

Page Navigation
1 ... 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264