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अर्थ-शंख की पेटी में पड़े हुए मोती की ऐसी अवस्था होती है कि वह धीवरों के द्वारा गले पर हाथ लेकर बाहर निकाले जाते हैं।
भावार्थ-उक्त दोहे में श्लेष अलंकार है। श्लिष्टार्थ होने से समुद्द, मुक्किय, दुव्वाह और गलि शब्द के दो-दो अर्थ हैं। 'समुद्द' का अर्थ पेटी तथा समान मुद्रा है। ‘मुक्किय' का शब्दार्थ है-मोती, वेश्या। 'दुव्वाह' का अर्थ दुर्व्याध (धीवर), नग्न है। ‘गल' का अर्थ है-गलना, कण्ठ (गला)।
श्लिष्टार्थ में इस दोहे का दूसरा अर्थ है__ शंख के आकार की मुद्रा होने से वेश्या की यह अवस्था होती है कि वह नग्न पुरुषों के द्वारा गले में हाथ डाल कर चूमी जाती है।
यह एक श्रृंगार (संयोग शृंगार) परक दोहा है। इसमें रति का श्लिष्ट वर्णन है। इसका मूल अभिप्राय है-पर को आसक्ति पूर्वक गले लगाना।
छंडेविणु गुणरयणणिहि अग्घथडिहिं घिप्पंति। तहि संखाहं विहाणु पर फुक्किज्जति ण भंति ॥152॥
शब्दार्थ-छंडेविणु-छोड़कर; गुणरयणणिहि-गुणों के रत्ननिधि, समुद्र (को); अग्घथडिहिं-बिक्री के स्थानों पर; घिप्पंति-फेंक दिए जाते हैं; तहिं-वहाँ पर; संखाहं-शंखों के विहाणु-विधान (होने); पर-पर (विभक्ति); फुक्किजंति-फूंके जाते हैं; ण भंति-भ्रान्ति नहीं (है)। __अर्थ-गुणों के रत्नाकर समुद्र (की सत्संगति) को छोड़ देने के कारण शंख की यह दुरवस्था होती है कि वे बिक्री के स्थलों पर पटके जाते हैं, फेंके जाते हैं और फिर खरीद लिए जाने पर फूंके जाते हैं-इसमें कोई भ्रान्ति नहीं है।
इस दोहे का व्यंग्यार्थ यह है-जो अनन्त गुणों के निधि रूप अपने स्वभाव से च्युत हो जाते हैं, वे संसार की हाट में आकर गिरते हैं। यहाँ कर्मोदय के अनुसार तरह-तरह की दुर्दशा होती है। स्वभाव से भ्रष्ट होने के कारण ही सर्वत्र भ्रष्टाचार है। यथार्थ में जीव का सबसे बड़ा अपराध यह है कि वह अपने स्वभाव से भ्रष्ट है। स्वभाव से भ्रष्ट होने पर नीति-अनीति का भी विवेक नहीं रहता। इसलिए नैतिकता से भ्रष्ट होने वाला उसे मजबूरी मानता है और यह समझता है कि अनैतिकता के बिना कोई भी काम सफल नहीं हो सकता। इसलिए आज सम्पूर्ण विश्व में यह एक दुर्दान्त समस्या के रूप में छा गया है। सत्संगति में रहना ही अपनी 1. अ, स अग्घथालिहिं; क, द अग्यथडिहिं; ब अग्घथलहि; 2. अ, ब तह; क, द, स तहिं; 3. अ, क, ब, स. फुक्किजंति; द फुटेजंति; 4. अ, द भवंति; क, स, ण भंति; ब भगति।
... पाहुडदोहा : 181