Book Title: Pahud Doha
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 171
________________ नहीं होता। क्योंकि यथार्थ में सभी जीव परमब्रह्म रूप हैं, जिस रूप वह सबको जानता है। तथा सो सिउ संकरु विण्डु सो सो रुद्दु विसो बुद्ध । सो जिणु ईसरु बंभु सो सो अनंतु सो सिद्ध ॥ - योगसार, 105 अर्थात् - वही शिव है, वही शंकर है, वही विष्णु है, वही रुद्र है, वही बुद्ध है, वही जिन है, वही ईश्वर है, वही ब्रह्म है, वही अनन्त है और सिद्ध भी उसे ही कहना चाहिए । जइ' मणि कोहु करिवि' कलहिज्जइ । तो अहिसेउ णिरंजणु किज्जइ । जहिं जहिं जोवई तहिं णहि कोविउ, हउ वि कासु विमज्झु ण' कोविउ ॥ 141 ॥ शब्दार्थ- जइ-यदि; मणि-मन में; कोहु - क्रोध; करिवि-करके; कलहिज्ज - कलह किया जाता है; तो; अहिसेउ - अभिषेक; णिरंजणु - निरंजन (का); किज्जइ - किया जाता है; जहिं जहिं- जहाँ जहाँ; जोवइ - देखता (हूँ); तहिं - वहाँ पर; हि-नहीं; कोविउ - कोई भी; हउं - मैं; णवि-नहीं; कासु वि - किसी का भी; मज्झु - मुझ (में); ण कोविउ - कोई भी नहीं ( है ) । अर्थ-यदि मन क्रोध करके कलह करना चाहता है ( तो रोककर ), तो परम निरंजन का अभिषेक करना चाहिए। मैं जहाँ-जहाँ देखता हूँ, वहाँ कोई भी अपना नहीं है। वास्तव में मैं किसी का नहीं हूँ और कोई भी मेरा नहीं है । भावार्थ-संसार में यदि कहीं द्वन्द्व है तो वह अपने भावों में हैं। इसलिए भावों के द्वन्द्वों को समाप्त करने के लिए समता का होना आवश्यक है । क्रोध अग्नि के समान है और समता जल के समान है । समता से क्रोधाग्नि का शमन हो सकता . है . । आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं- “जब तक जीव आत्मा और आस्रव, इन दोनों के अन्तर और भेद को नहीं जानता है, तब तक वह अज्ञानी रहता हुआ क्रोधादिक आस्रवों में प्रवर्तता है।” समयसार, गा. 69-70 1. अ, क, ब, स जइ द जं; 2. अ वरिवि; क, द, ब, स करिवि; 3. अ, ब, स कलहिज्जइ; क, द कलहीजइ; 4. अ तें; क, द, ब, स तो; 5. अ णिरंजणि; क, ब, स णिरंजण; द णिरंजणु; 6. अ जोवं; क, द जोयउ; ब, स जोवउ; 7. अ, ब, स तहि; क, द तहिं; 8. अ, स ण; क, द, बवि । पाहुदोहा : 169

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