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यदि परमात्मा रूपी प्रियतम का दर्शन नहीं होता, तो ज्ञान रूपी दर्पण में स्वात्मावलोकन से क्या लाभ है? जिन-दर्शन का प्रयोजन ही निज दर्शन है।
लौकिक धन्धे करने वाले इस जगत का मुझे प्रतिक्षण प्रतिभास होता है। लेकिन यह महान् आश्चर्य का विषय है कि घर में रहते हुए मुझे आज तक गृहपति का दर्शन नहीं हुआ अर्थात् आत्मानुभव से वंचित होकर प्रियतम के वियोग में व्यथित
सम्यग्दर्शन होने के पूर्व प्रत्येक जीव को शुद्धात्म स्वरूप परमात्मा प्रतिभासित होता है अर्थात् आत्म-दर्शन के समय परमात्मा की झलक अवश्य ज्ञानगोचर होती है। क्योंकि इसके बिना आत्मा-परमात्मा का श्रद्धान नहीं होता। यही अभिव्यंजना . . व्यंजित है। अतः यह पद भावात्मक रहस्यवाद का उत्कृष्ट निदर्शन है।
जसु जीवंतह मणु मुवउ पंचेंदियह समाणु। सो जाणिज्जई मोक्कलउ लद्धउ पउ णिव्वाणु ॥124॥ __ शब्दार्थ-जसु-जिसके; जीवंतह-जीवित रहते हुए के; मणु-मन; मुवउ-मर गया; पंचेंदियहं–पाँचों इन्द्रियों (के); समाणु-साथ; सो-वह; जाणिज्जइ-जाना जाता है; मोक्कलउ-मुक्त; लद्धउ–प्राप्त किया; पउ-पद; णिव्वाणु-निर्वाण (का)।
अर्थ-जिसके जीवित रहते हुए पाँचों इन्द्रियों के साथ मन मर गया अर्थात् भावमन स्वभाव में विलीन हो गया, उसे मुक्त जानना चाहिए; क्योंकि वह जीवन-मुक्त हो गया है।
भावार्थ-जीवन मुक्त होने पर वह मनसे रहित हो जाता है। इसलिए सिद्ध भगवान् के मन नहीं होता है। संकल्प-विकल्प करना मन का कार्य है। अतः अनेक प्रकार के विकल्पजाल को मन कहा गया है। मन दो प्रकार का है-द्रव्यमन और भावमन। जो अंगोपांग नामकर्म के उदय से मनोवर्गणा के स्कन्ध से उत्पन्न होता है और आठ पंखुरी वाले कमल के आकार का होता है, उसे द्रव्यमन कहते हैं। द्रव्यमन शरीर की रचना विशेष है, इसलिए मूर्त व पुद्गल है। द्रव्यमन में रूप, रस, गन्ध, स्पर्श पाए जाते हैं। भावमन पर द्रव्यों का अवलम्बन लेकर प्रवर्तता है, इसलिए उसे भी पौद्गालिक कहा गया है। (सर्वार्थसिद्धि)
यद्यपि भावमन लब्धि और उपयोग लक्षण वाला है, तथापि वह आत्मा और
1. अ जावंतह; क, द, स जीवंतह; ब जीवतह; 2. अ पंचदियह; क, द पंचेंदियह; ब पचिंदिय; स पंचिंदियह; 3. अ जाणिज्जहि; क, द, ब जाणिज्जइ स जाणिज्जह; 4. अ, ब मोकलउ; क, द, स मोक्कलउ; 5. अ लधउ; क, द, स लद्धउ; व लद्धहु।
150 : पाहुडदोहा