Book Title: Nijdhruvshuddhatmanubhav Author(s): Veersagar, Lilavati Jain Publisher: Lilavati Jain View full book textPage 5
________________ दो शब्द इस लघु पुस्तिका में स्व. श्री वीरसागरजी महाराज ने जैन आगम के महासागर में से मंथन करके गागर में मोती भरने का महान स्तुत्य कार्य किया है। उन्होंने श्री समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, कार्ति के यानुप्रेक्षा, आप्तमीमांसा, अष्टसहस्री, पंचास्तिकाय, बृहद् द्रव्यसंग्रह, ज्ञानार्णव, महापुराण, तत्त्वानुशासन, सर्वार्थसिद्धि, धवल, जयधवल,श्लोक कार्तिक, न्याय कुमुदचन्द्र, प्रमेय कमल मार्तण्ड, इष्टोपदेश, परमानंद स्तोत्र, जैनेन्द्रसिद्धान्त कोश, मोक्षपाहुड, भाव संग्रह, नयचक्रादि लगभग 25 ग्रन्थों और उनकी टीकाओं के आधार से सप्रमाण यह सिद्ध करने का सक्षम सफल प्रयत्न किया है कि अविरती गृहस्थ को भी वीतराग शुद्धोपयोगरूप आत्मानुभव-निश्चय सम्यग्दर्शन होता है। स्व. श्री वीरसागरजी मुनिराज द्वारा लिखी अध्यात्मन्यदीपिका की विशाल टीका में एवं श्री समयसार की श्री जयसेनाचार्यजी की तात्पर्यवृत्ति टीका के संपादन-अनुवाद ग्रन्थ में भी अनेक स्थानों पर सप्रमाण गृहस्थ के शुद्धोपयोग-आत्मानुभूति-निश्चय सम्यग्दर्शन चतुर्थ गुणस्थान में होता हैं ऐसा लिखा है / उक्त दोनों ग्रन्थ सोलापूर से प्रकाशित हैं जो आज भी उपलब्ध है। उन्होंने यह भी विशेष कथन किया है कि अनंत गुणों के अभेदपिण्ड, एक, अखण्ड, नित्य, ज्ञायक, चैतन्य, परिपूर्ण, सामान्य, एकत्वविभक्त, निज-ध्रुव-शुद्ध, ज्ञान-दर्शन-आनंद सहित आत्मा का प्रत्यक्ष प्रामाण्य सहित अनुभव अतींद्रिय मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में इस काल में आज भी गृहस्थ कर सकता है / उनके अनुसार निज-ध्रुव-शुद्ध आत्मा जो अनुभूतिरूप प्रत्यक्ष प्रमाणज्ञान पर्याय का विषय है वह कारण परमात्मा पारिणामिक भाव त्रैकालिक ध्रुव सामान्य ध्रुव विशेषात्मक और भाव-अभाव रूप है। इस वीसवीं सदी में आविष्कृत सम्यग्दर्शनमय स्वात्मानुभूति की कला को श्री वीरसागरजी मुनिराज ने अपनी विशिष्ट ध्यान पद्धति की साधना द्वारा मुमुक्षु समाज को सत्य अतींद्रिय आनन्द प्राप्त करना अत्यधिक सहज और सुलभ कर दिया है। श्री वीरसागरजी मुनिराज आज के युग में होनेवाले दिगम्बर जैन भावलिंगी संतों में से एक मुनि थे। उनका सम्पूर्ण कथन एवं उनकी सम्पूर्णPage Navigation
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