Book Title: Nandanvan Kalpataru 2007 00 SrNo 18
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti

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Page 17
________________ Owne coo00000 | स्तवनानुवादः वाचकवर्यश्रीयशोविजयगणि-प्रणीतं श्रीवर्धमानजिनस्तवनम् गिरुआ रे गुण तुम तणा, श्रीवर्धमान जिनराया रे; । सुणतां श्रवणे अमी झरे, मारी निर्मल थाए काया रे... तुम गुणगण गंगाजले, हुं झीलीने निर्मल थाउं रे; अवर न धंधो आदरुं, निशदिन तोरा गुण गाउं रे... झील्या जे गंगाजले, ते छिल्लर जल किम पेसे रे ?; मालती फूले मोहियो, ते बाउल जइ नवि बेसे रे... एम अमे तुम गुण गोठy, रंगे राच्या ने वळी माच्या रे; ते किम परसुर आदरे, जे परनारी वश राच्या रे... तुं गति तुं मति आशरो, तुं आलंबन मुज प्यारो रे; वाचक जश कहे माहरे, तुं जीवजीवन आधारो रे... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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