Book Title: Muktidoot
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 4
________________ शरण नहीं है, पवन! मुक्ति अरमप्राप्ति है, वह त्याग-विराग नहीं है पवन!" पवन के त्रस्त अभिमान ने मन-ही-मन सोचा-स्त्री का सौन्दर्य, उसकी महत्ता मेरे 'अहं' से भी बड़ी और उसने निश्चय किया___अच्छा अंजन, आओ, पवनंजय के अंगूठे के नीचे __ और फिर मुसकराओ अपने रूप की चाँदनी पर!" अंजना के परित्याग का संकल्प करके, उसने कहा था "यदि तुम्हारी यही इच्छा है, प्रहस्त, तो चलो, मानसरोवर के तट पर अपनी विजय-यात्रा का पहला-चिह्न गाड़ चलूँ ।" उसी मानसरोवर के तट पर गाड़ आया था पवनंजय अपने सहज, प्रकृत व्यक्तित्व का समाधि-पाषाण! "देखो प्रहस्त! एक बात तुम और जान लो, जिस अपने सखा पवनंजय को तुम चिर-दिन से जानते थे, उसकी मौत मानसरोवर के तट पर तुम अपनी आँखों के आगे देख चुके हो।" सुन्दर व्यक्तित्व के प्राणों को खोकर, पवनंजय का कंकाल घूमता फिरा दिशाओं विताओं में तीन बार दे उहेग और दैदिक-सार्ति की दुन्द्रर्ष प्रचण्डता के साथ! तभी आया युद्ध का निमन्त्रण । यही तो इलाज है इस प्राणहीन प्रचण्डता का, भौतिक आकांक्षा का, 'आह' के संघर्ष का, कि ये सब उसकी सान पर चढ़कर तेज़ हो सकें और आपस की टक्करों से अपने ही स्फुलिंगों में बुझ सकें! __ युद्ध में बुझने के लिए पवनंजय जा रहा है, कि नारी का वरद हस्त मंगल के दीप-सैंजोये, सामने आता है कुशल-कामना लेकर। पुरुष का अहंकार अपनी ही कटुता में कपिठत हो गया-पर, ज्वाला भभकी "ओह, “अशुभमुखी'!..." खड्ग-पष्टि से खिंचकर तलवार उनके हाथों में लपलपा आधी। तीव्र किन्तु स्फुट स्वर निकला-मदुरीक्षणे...छि:!" उस पर अंजना ने क्या कहा? मन-ही-मन उसने कहा "आज आया है प्रथम बार वह क्षण, जब तुमने मेरी ओर देखा...तुम मुझसे बोल गये। हतभागिनी कृतार्थ हो गयी, जाओ अब चिन्ता नहीं; अमरत्व का लाभ करो।" उत्कट अपमान...अनुपम आत्मसमर्पण! दानव अट्टहास कर उठे, देव फूल बरसा दें, मानव पानी-पानी होकर बह जाएँ!! मानव के विष का चढ़ाव चरम सीमा पर पहुँच गया है। तो क्या अब मौत? नहीं, ऊपर देखा तो है, कि अमृत का अक्षय भण्डार जीवन में प्राप्य है। पुरुष सादर, सपरिताप उन्मुख-भर हो। ___ कंकाल-पुरुष प्राणों के लिए आकुल हुआ। वन में देखा कि एकाकिनी चकवी अपने प्रिय के लिए व्याकुल है। पवनंजय का बाल्मीकि अपने ही घुमड़ते हुए श्लोकों के शत-शत अनुष्टुपों में भर आया।

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