Book Title: Muktidoot
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 2
________________ प्रस्तावना (प्रथम संस्करण) अंजना और पवनंजय की प्रेम कथा एक प्रसिद्ध पौराणिक आख्यान है। 'मुक्तिदूत' की रचना उसी आख्यान की भूमिका पर हुई है- आधुनिक उपन्यास के रूप में। पर लेखक ने इसका उपशीर्षक दिया है- एक पौराणिक रोमांस' । लगता है न कुछ विचित्र - सा ! बात यह है कि अँगरेजी शब्द 'रोमांस' में आख्यान का जो एक विशेष प्रकार, कथानायक की महत्वाकांक्षा, नायिका की प्रेमाकुलता और घटनाओं के चमत्कार का सहज आभास मिलता है, वह 'आख्यान', 'कथा' या 'उपन्यास' शब्द में नहीं। फिर भी, 'मुक्तिदूत' पश्चिमी ढंग का रोमांस नहीं है। इसमें 'रोमांस' ( अथवा रोमांचकता ) की अपेक्षा पौराणिकता ही प्रधान है - वह जो शाश्वत, उन्नत और चिरनवीन है। लेखक ने कथा की पौराणिकता की भी एक सीमा बाँध ली है। उसके बाद उसने वातावरण की अक्षुण्णता में कल्पना को मुक्त रखा है। ऐतिहासिक शोध-खोज और भूगोल की सीमाओं का उल्लंघन यदि कथा कहीं करती है, तो किया करे। उड़ान की रोक लेखक को इष्ट नहीं। उसके लिए तो पुराण का कल्पनामूलक इतिहास और भूगोल अपने आप में ही पर्याप्त है। कल्पना की गहराइयों में आकर जिस चीज को लेखक ने खोजा है, वह बेशक 'तथ्य' न हो, पर वह 'सत्य की प्रतीति' अवश्य है E और यही श्री वीरेन्द्र कुमार की साहित्यिक सर्जना एवं लोकजीवन के नवनिर्माण का देवदूत बनकर प्रकट हुआ है। आज की विकल मानवता के लिए 'मुक्तिदूत' स्वयं मुक्तिदूत है, इस रूप में पुस्तक का समर्पण सर्वथा सार्थक है I उपन्यास आपके हाथ में है: आप पढ़ेंगे ही घटनाओं का विरल तारतम्य-पवनंजय का अंजना के सौन्दर्य के प्रति प्रबल किन्तु अचिर आकर्षण, अंजना के सम्बन्ध में अपने निरादर को लेकर पवनंजय की ग़लत धारणा, परिणय, विफल सुहागरात्रि, त्याग, आकुल स्मृति, मिलन, विच्छेद, युद्ध, खोज, हनुमान् जन्म, पुनर्मिलन -आदि । इस सर्वांगीण प्रणयकथा के चिर-परिचित रूप में पाठकों के मनोविनोद की पर्याप्त सामग्री है। पर 'मुक्तिदूत' की मोहक कथा, सरस रचना, अनुपम शब्द - सौन्दर्य और :: 9:

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