Book Title: Muktidoot
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 3
________________ कवित्व से परे पाने लायक कुछ और ही है-वह जो पस्तक की इस प्रत्येक विशेषता से व्याप्त होकर भी माला के अन्तिम तीन मनकों की तरह सर्वोपरि हृदय से, आँखों से, और माथे से लगाने लायक है। पुस्तक का यह सन्देश पाठकों से स्वयं बोलेगा-रचना की राष्ट्र नदी कसौटी पड़ी है। ___ 'मुक्तिदूत' पचनंजय के आत्मविकास और आत्मसिद्धि की कथा है। पुरुष को 'अहं' की अन्ध कारा से नारी ने त्याग, बलिदान और आत्मसमर्पण के प्रकाश द्वारा मुक्त किया है। कथा के प्रारम्भ का पवनंजय अपनी आकांक्षा के सपनों से खेलनेवाला, उद्धत और अभिमानी राजकुमार है। वह निर्वाण की खोज में है-और निर्वाण का यह दावेदार बनना चाहता है अखिल सृष्टि का विजेता, भूगोल-खगोल का अधिकारी और एक ही समय में समन भोग, अनन्त सौन्दर्य और अक्षय प्रेम का परम भोक्ता! निर्वाण की खोज में यह ऋषभदेव की निर्वाणभूमि कैलास पर्वत पर हो आया है; पर उसे वहाँ निर्वाण नहीं मिला। उदयाचल से अस्ताचल पर्यन्त की परिक्रमा देने पर भी उसे मुक्ति नहीं मिली। मुक्ति का आकर्षण तीव्रतर अवश्य है-“देखो प्रहस्त, दिशाओं में मुक्ति स्वयं बाँहें पसारकर बुला रही है!" पर देखिए, इस अहंकारी विजेता की वीरसा कि यह स्त्री के सौन्दर्य से डरकर भागा हुआ है! सागर के बीच, महलों की अटारी पर से आये हुए आकुल बाँहों के निमन्त्रण को, रूप के आसान को अनसुना-अनदेखा करके भाग निकला है उलटे पाँव, अपनी नाय में वह प्रतापी राजकुमार! गाँठ यहीं आकर पड़ गयी; यहीं 'अहं' उलझ गया। इसी गाँठ को कस दिया मिश्रकेशी के व्यंग्य ने, अंजना की 'उपेक्षा' ने। चोट खाये हुए, बौखलाये हुए सिंह की तरह घूम रहा है पवनंजय वनों में, पर्वतों पर, समुद्र की तरंगों पर। अंजना से बदला ले चुका है-उसकी सुहागरात्रि की आकुल प्रतीक्षा को व्यर्थ करके, उसके त्याग की तुमल घोषणा महलों में गुंजवाकर! मारी वेदनाएँ सहन कर-करके जितना ही ऊँचे उठ रही है। पुरुष-पवनंजय अपने ही अहंकार के बोझ से उतना ही नीचे धंसता जा रहा है। पर, अब वह दार्शनिक हो गया है। अपने-पराये के भेद, मोह-मिथ्यात्व की परिभाषा, आत्मा की निज-परिणति, एकाकी मुक्त विहार-कितनी ही तर्कणाओं द्वारा वह अपने आदरणीय चिर-सखा प्रहस्त को चुप कर देना चाहता है। प्रहस्त अपने ही दिये हुए सजीव और सकवित्व दर्शन की ये निर्जीव व्याख्याएँ सुनता है, तो निर्बल के इस छद्मदर्शन पर मन-ही-मन हँसता है, दुखी होता है। प्रहस्त कह चुका है "तुम स्त्री से भागकर जा रहे हो। तुम अपने ही आप से पराभूत होकर आत्मप्रतारण कर रहे हो। पागल के प्रताप से अधिक तुम्हारे इस दर्शन का कुछ मूल्प नहीं। यह दुर्बल की आत्मवंचना है, विजेता का मुक्तिमार्ग नहीं। स्त्री के सम्मोहन-पाश में ही मुक्ति की ठीक-ठीक प्रतीति हो सकती है। मुक्ति की माँग-बड़ी तीव्रतम है...मुक्ति स्वयं स्त्री है, नारी को छोड़कर और कहीं :: 10::

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