Book Title: Mook Mati
Author(s): Vidyasagar Acharya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 7
________________ और क्षीर का फट जाना ही / वर्ण-संकर है। अभिशाप है। (पृष्ठ 47-44 खण्ड दो-शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं लो, अब शिल्पी / कुंकुम-सम मृदु माटी में मात्रानुकूल मिलाता है। छना निर्मल-जल । नूतन प्राण झूक रहा है। भाटी के जीवन में। करुणामय कण-कण में,' माटी के प्राणों में जा, पानी ने वहाँ / नव-प्राण पाये हैं ज्ञानी के पदों में जा / अज्ञानी ने जहाँ । नव-ज्ञान पाया है। (पृष्ठ 89) माटी को खोदने की प्रक्रिया में कुम्भकार की कुदाली एक काँटे के माथे पर जा लगती है, उसका सिर फट जाता है। वट बदला लेने की सोचता है कि कुम्भकार की अपनी असावधानी पर ग्लानि होती हैं। उसके उद्गार हैं : खंम्मामि, खमंतु मेक्षमा करता हूँ सबको, / क्षमा चाहता हूँ सबसे, सबसे सदा-सहज बस / मैत्री रहे मेरी". यहाँ कोई भी तो नहीं है। संसार-भर में मेरा वैरी: (पृष्ठ 105) इस भावना का प्रभाव प्रतिलक्षित हुआ क्रोध भाव का शमन हो रहा है... प्रतिशोध भाव का वमन हो रहा है. पुण्य-निधि का प्रतिनिधि बना बोध-भाव का आगमन हो रहा है (पृष्ठ [] बोध के सिंचन बिना / शब्दों के पौधे ये/ कमी लहलहाते नहीं... शब्दों के पौधों पर / सुगन्ध मकरन्द-भरे बोध के फूल कभी महकते नहीं". बोध का फूल जब / ढलता-बदलता, जिसमें, वह पक्व फल ही तो/ शोध कहलाता है। बोध में आकुलता पलती है शोध में निराकुलता फलती है, फूल से नहीं, फल से / तृप्ति का अनुभव होता है। [Yष्ट 106-107 इस दूसरे खण्ड में सन्त-कवि ने साहित्य-बोध को अनेक आयामों में अंकित किया है। यहाँ नव रसों को परिभाषित किया है। संगीत की अन्तरंग प्रकृति का दस

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