Book Title: Mantraraj Rahasyam
Author(s): Sinhtilaksuri, Jinvijay
Publisher: Bharatiya Vidya Bhavan

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Page 33
________________ २२३ र मन्त्रराजरहस्यम् । [२३ मधुमथुरजिनानन्तरमाय तीर्थान्तरे मुधर्माप्तौ । 'इरि' शब्दाद तीर्थान्तरभवसल्लब्धिसरिविन्यासः ॥ २२२ 'किरि' सद्व्यपदं 'गिरि' सर्वगुणाः 'पिरीति पर्यायाः । 'सिरि हिरि आयरिय'पदोक्तरत्पत्ति-ध्रौव्य-विगमवचः॥ द्रव्यं गुण -पर्यायोत्पत्ति-ध्रुव-विगमकलितमिह वेत्ति । अर्हनिव तीर्थान्तरभावी सरिः प्रवचनाय ।। २२४ भाग्यद देवीजापावत्रापि यतेस्तथैव निर्दिष्टौ । 'पण्डिसमणेति स्वप्ने समग्रमेतत् सुभग-वश्ये ॥ २२५ 'पणवो इरि-किरि-गिरि-सिरि-हिरि-पिरिआयरियकालि-महाकालि। पवणं गयणं' तइए पत्याणे देविविन्नासो॥ २२६ भूताऽम्युधि पञ्चक-पई-वेद-युगैरेलरास्तु शैलगुणाः। विमस्थाने लक्ष्मीदेवी यदिवा महाकाली ॥ २२७ 'इरि किरि' चकभुजा 'गिरी'ति रस-भूतदिकुमार्योऽय । 'सिरि हिरि' नन्दा भद्रा जया च विजयाऽपराजिया(ता)। २२८ शासनविद्यादेव्यः 'पिरीति 'आयरियकालि' जिनदेव्यः । "महकाली' सदस्य च गत्युपदेष्ट्री विरोधिशान्तिकरी ॥ २२९ 'ॐ इरिहरि-किरिफिरि-गिरिगिरि-पिरिपिरि-सिरिसिरि-हिरिहिरिकालि। आयरियकालि-पवणो गयण' तह मंतपीडम्मि । २३० शैल रसपटक-युग्मं पदासः पञ्चवोदिसंख्याऽभूत् । तुर्य मन्त्रात् पीठे नापाधिष्ठाय माग्वत् ।। __ २३१ देवाद्रिसमानपदैः पालिपदैर्भाव्यमत्र वन सत्यम् । न्यूनाधिरैरपि तथा गुरुवातस्तत्र न भ्रान्तिः ॥ 'इरिहरि-फिरिपिरि' कल्पाधिपतिपदं 'गिरिगिरी ति मुवनेन्द्राः । 'पिरिपिरिच वानमन्तरनायाः 'सिरिसिरि' च चन्द्राः ॥ २३३ परमे। 2 मानी ।। २३२ - -

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