Book Title: Mantraraj Rahasyam
Author(s): Sinhtilaksuri, Jinvijay
Publisher: Bharatiya Vidya Bhavan
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श्रीसिंहतिलकसूरिविरचितं प्रथमं वीजत्रितयं गणभृविद्ये समध्यमे च 'एहि'युगम् । संबोपडाहानमथासीत् 'तिष्ठ'द्वयं स्थाप्यम् ॥ आदी माग्नन्मध्यान 'संनिहिता मम भव'द्वयं संवपट् । पूजाऽय कार्यमन्त्रात् सर्वस्माद् मेरुतोऽथ मध्याद् वा ।। 'ह्री गणभृविद्यायै सर्वत्र परमेष्ठिने स्वाहा। चारि ‘परमात्ममूत्यै स्वाहा' कर्पूरगन्धाद्यैः ॥ आदौ माग्वत् स्वाहान्तेऽनादिनिधनात्मने तदक्षतकाः । सर्वसुरासुरपूजाय स्वाहा कुसुममप्यग्रे ॥ तदनन्तज्ञान-दर्शन-वीर्य-सुखादात्मने मरुद्-व्योम्ने । नैवेद्य-दीप-धूपन-फलानि ढौक्यानि तत्क्रमतः ।। वीजत्रितयं गणभृद्विद्यायै मध्यतः 'ह्रीं स्वकं स्थानम् । गच्छ'द्वय विसर्गोचित य'द्वन्द्वे भवेत् पूजा ।। मोक्षाऽभिचार-लक्ष्मी-शान्त्यांकृष्टिक्रमेण जापविशौ। अष्ठादिकनिष्ठां च यावद् धत्तेऽक्षसूत्रमसौ ॥ स्तम्भेऽथ शान्ति - पुष्टौ वश्ये उच्चाटने मृतौ क्रमतः । भूम्यादिमण्डलगतं साध्यं ध्यायति तदर्थसते ॥ पूर्वाह्ने मध्याझे मध्यनिशायां निशान्त्यके यामे । वश्यं स्तम्भं शान्तिं पुष्टिं कुर्यात् क्रमेणैपा ॥ अथात्र मेरुगतवाचनान्तरमाह'पणवो नमो' पयाइसु 'जिंणाण ओहिजिणे परमोहिजिणे। तहाणतोहिनिणाणं केवलितिय चउँदसपुन्बी ॥ दसेपुरी इकारसंगीण उगतवचरणचारीणं । - खीरासालद्धीणं महाँसवलद्धि-कुंद्वयुद्धीणं ॥ गोयमसामिस्स वहा मुंहम्मसावि एसि सन्द उचाई साहंत सोलसपचा 'ए ॥
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