Book Title: Manipati Rajarshi Charitam
Author(s): Jambukavi, Bhagwandas Pt
Publisher: Hemchandra Granthmala
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________________ मणिपति श्रुत्वा वचस्ततस्तस्य लोकैः सद्भावसूचकम् / अहो !! पापेयमित्येवं धूलिः क्षिप्ता मुखं प्रति // 1068 // चरित्रम् किमेतदीदृशं पापे ! निर्भाग्ये ! कुलदूषिणि ! / त्वया कार्यमकार्येवं रुरुदे च मुहुर्मुहुः // 1069 // तद् भोः कुश्चिक यथाऽ-सौ वृषस्तिर्यगपि स्फुटम् / कलङ्काङ्कितमात्मानं शोधयामास मानवान् // 1070 // // 53 // तथाऽहमपि शक्नोमि विधातुं शुद्धिमात्मनः। किन्तु जाने तवैव स्यात् श्राद्धस्येदं हियः पदम् // 1071 // तन्मा किश्चित् सुबुडे ! त्वमस्थानेऽ-स्मान् विचारय नहि जैनं वचो जानन् अकार्ये संप्रवर्तते॥१०७२॥ इति वृषभकथा // अथोचे कुचिकेनोच्चै-मुने ! दोषं विधित्सता / किमेवं मामृषे ! ऽलीकैः प्रत्याययसि घाष्टयतः // 2073 // तद् भोः ! कृतघ्नता सम्यग-ऽवोचमहमत्र ते / गृहकोकिलतुल्याया-श्वेष्टाया दर्शनात् स्फुटम् // 1074 // कवा. इह हि जगति सर्वप्राणी प्रायशोऽपरमाणिपाणहरणनिरतमतिर्वर्तते, विशेषेण स्थलचराणां लघूनां मध्ये गृहकोकिला, स किल सर्वकालमतिक्षुद्रमना भवति / तथाहि-प्रत्यक्षमेव श्यते पतङ्ग-मक्षिकादिजन्तूनालोक्य गृहकोकिलः शनैः शनैनिकटीभूय भक्षयाम्येतान् अशेषान् प्राणिन इति क्रूराऽध्यवसायमास्थितस्तेषामेवोपरि बडलक्षतया निर्जीव इव, प्रसुप्त इवोपरतसमस्तशरीराऽवयवपरिस्पन्दनश्चिरमास्ते इति / तस्यैवगृहकोकिलस्य जातिप्रत्ययेनैव दृषिकामलाविलतया निशि संवत्येते विलोचने / ततश्चासौ चक्षुर्विकल इवन

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