Book Title: Manipati Rajarshi Charitam
Author(s): Jambukavi, Bhagwandas Pt
Publisher: Hemchandra Granthmala

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Page 133
________________ वसन्त्यास्तत्र कालेन तस्याः सख्यमभूत् समम् / कुरड्या नाऽथवा किश्चि-दसंभाव्यं शरीरिणाम् // कालेनाऽन्याऽपि तत्रागा-च्छृगाली क्रूरमानसा / यहिस्तु स्वच्छता स्वस्य दर्शयन्त्यतिमोरध्यतः। सतो विलोक्य तां सिंह्या-भाणि सुस्वागतं तव / तिष्ठाऽत्र निर्वृतो भद्रे ! वयस्येव निराकुला // एवं तत्रितयं तत्र कृत्वा प्राणस्थिति बहिः / प्रसुप्समुपविष्टं च लीलयाऽऽस्ते स्म निर्भयम् // 1304 // अन्यदा शावकान् मुक्त्वा सुप्तायां मृगयोषिति / सिंही बहिर्ययो कार्य किश्चिदाऽऽश्रित्य सत्वरम् // ततः क्षुधार्तया बाढं शृगाल्या ते हि शावकाः। भक्षिता विस्मृतप्रीत्या 'किं न कुर्यात् क्षुधाऽऽतुर'१॥ संशोध्य स्वं मुखं धूर्त्या सुप्तमृग्या विलिप्य च / रुधिरेण ततस्तस्थे तत्रैव गतशङ्कया // 1307 // क्षणान्तरात् समायाता सिंही यावद्ददर्श नो / आत्मीयशावकांस्तत्र वीक्ष्यमाणा समन्ततः:१३०८॥ ततोऽवोचच्छृगालों सा भद्रे ! क्व मम शावका? तिष्ठन्ति प्राह सा मृग्या भक्षिताः पापयाऽनया // मृगीमुत्थाप्य प्रपच्छ सखि ! किं मम शावकान् / भक्षयित्वा सखिद्रोह-मकार्षीरिति सिंहिका 1310 // सा प्राह सखि मा मैव-मसंभाव्यं वचो वद / सिंही प्राह शृगाल्यत्र प्रमाण येह संस्थिता // 1311 // साऽऽह यदि भृगाल्येवा कार्यस्याऽस्य विधायिका / येक्षं भाषते निन्ध-मश्रद्देयं मृगीजने // 1312 // शृगाली दाढर्थमाधाय प्राह दुष्टेऽपलप्पते / किमेवं वक्त्रमारक्तं तद्रक्तेन न पश्यसि ? // 1313 // OMGARH

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