Book Title: Manan aur Mulyankan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 11
________________ १. प्राचार-संहिता की पृष्ठभूमि कोई भी आधार निश्चित होता है तो उस पर विचार किया जाता है। आधार का निश्चय हुए बिना कोई आचार-संहिता नहीं बन सकती। अनात्मवाद के आधार पर कोई दार्शनिक दृष्टि चलती है तो उसके अनुसार बनने वाली आचार-संहिता एक प्रकार की होगी और आत्मवाद के आधार पर बनने वाली आचार-संहिता दूसरे प्रकार की होगी। आचारांग सूत्र में सबसे पहले इस प्रश्न पर विचार किया गया है कि जो आचार निरूपित किया जा रहा है, उसका आधार क्या है ? इस चिन्तन से आत्माको प्रस्तुत किया गया। हमारी जो भी आचार-संहिता है, उसका आधार है- आत्मा। सबसे पहले आत्मा का अवबोध होना चाहिए, आत्मा का ज्ञान होना चाहिए। जिसे आत्मा का ज्ञान नहीं होता, उसका यह आचार नहीं हो सकता। आत्मा एक अमूर्त तत्त्व है। वह दृष्ट नहीं है। हर व्यक्ति उसे देख नहीं पाता। इसी सत्य को भगवान् महावीर ने निरूपित करते हुए कहा, “बहुत सारे व्यक्ति ऐसे होते हैं जिन्हें यह ज्ञान नहीं होता कि मैं कौन हूं? मैं कहां से आया हूं? यहां से मर कर कहां जाऊंगा? किस दिशा से-पूर्व से, पश्चिम से, उत्तर से, दक्षिण से, ऊर्ध्व दिशा से या अधो दिशा से-आया हूं? या मैं किसी अनुदिशा से आया हूं? ये अठारह दिशाएं हैं-चार दिशाएं, चार विदिशाएं, आठ अनुदिशाएं और ऊंची-नीची दिशा । मैं किस दिशा से आया हूं?—यह सब उसे ज्ञात नहीं होता। जब तक यह सारा ज्ञात नहीं होता, तब तक आत्मा का बोध नहीं हो सकता। आत्मा के बोध का एक स्पष्ट लक्षण है-पूर्वजन्म । जब पूर्वजन्म या पुनर्जन्म ज्ञात हो जाता है तब आत्मा के विषय में कोई संदेह नहीं रहता। . ___ आत्मवाद और अनात्मवाद की एक मुख्य भेद-रेखा है। अनात्मवाद की स्वीकृति है—इस जीवन से पहले कुछ नहीं था और इस जीवन के बाद कुछ नहीं होगा। हमारा अस्तित्व या हमारी चेतना केवल वर्तमान में ही है। आत्मवाद आत्मा के त्रैकालिक अस्तित्व को स्वीकृति देता है। जब आत्मा का अस्तित्व पूर्वकाल में भी था, उसका अस्तित्व उत्तरकाल में भी होगा, वह वर्तमान में भी है, इसलिए उसका कालिक अस्तित्व है। इस त्रैकालिक अस्तित्व का बोध ही आत्मवाद है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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