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ब्रह्मचर्य-सूत्र
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जैसे बहुत ज्यादा इंधनवाले जङ्गल में पवन से उत्तेजित दावाग्नि शान्त महीं होती, उसी तरह मर्यादा से अधिक भोजन करनेवाले ब्रह्मचारी की इंद्रियाग्नि भी शान्त नहीं होती। अधिक भोजन किसी को भी हितकर नहीं होता।
(५२) ब्रह्मचर्य-रत भिक्षु को श्रृंगार के लिए, शरीर की शोभा और सजावट का कोई भी श्र ङ्गारी काम नहीं करना चाहिये ।
(५३) ब्रह्मचारी भिक्षु को शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श-इन पाँच प्रकार के काम-गुणों को सदा के लिये छोड़ देना चाहिये।
(५४) स्थिर-चित्त भिक्षु, दुर्गाय काम-भोगों को हमेशा के लिए छोड़ दे। इतना ही नहीं, जिनसे ब्रह्मचर्य में तनिक भी क्षति पहुँचनेकी सम्भावना हो, उन सब शङ्का-स्थानों का भी उसे परित्याग कर देना चाहिए।
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