________________
विनय-सूत्र
(८०)
जो गुरु की आज्ञा का पालन नहीं करता, जो उनके पास नहीं रहता, जो उनसे शत्रुता का बर्ताव रखता है, जो विवेक-शून्य है, उसे अधिनीत कहते हैं।
(८१-८३) जो बार-बार क्रोध करता है, जिसका क्रोध शीघ्र ही शान्त नहीं होता, जो मित्रता रखनेवालों का भी तिरस्कार करता है, जो शास्त्र पढ़कर गर्व करता है, जो दूसरों के दोषों को प्रकट करता रहता है, जो अपने मित्रों पर भी क्रुद्ध हो जाता है, जो अपने प्यारे-से-प्यारे मित्र को भी पीठ-पीछे बुराई करता है। जो मनमाना बोल उठता है-यवादी है, जो स्नेहीजनों से भी द्रोह रखता है, जो अहंकारी है, जो लुब्ध हैं, जो इन्द्रियनिग्रही नहीं, जी पाहार श्रादि पाकर अपने साधर्मी को न देकर अकेला ही खानेवाला अविसंभागी है, जो सबको अप्रिय है, वह भविनीत कहलाता है।
(८४) शिष्य का कर्तव्य है कि वह जिस गुरु से धर्म-प्रवचन सीखे, उसको निस्तर विनय-भक्ति व रे । मस्तक पर अंजलि चढ़ाकर गुरु के प्रति सम्मान प्रदर्शित करे। जिस तरह भी होसके मन से, बच्चन से और शरीर से हमेशा गुरु की सेवा करे ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org