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क्षमापन - सूत्र
( ३१० )
धर्म में स्थिर बुद्धि होकर मैं सद्भावपूर्वक सब जीवों के पास अपने अपराधों की क्षमा माँगता हूँ और उनके सब अपराधों को मैं भी सद्भावपूर्वक क्षमा करता हूँ ।
( ३११ )
मैं नतमस्तक होकर भगवत् श्रमण संघ के पास अपने अपराधों की क्षमा मांगता हूँ और उनको भी मैं क्षमा करता हूँ । ( ३१२ )
आचार्य, उपाध्याय, शिष्यगण और साधर्मी बन्धुओं तथा कुल और गण के प्रति मैंने जो क्रोधादियुक्त व्यवहार किया हो उसके लिये मन, वचन और काय से क्षमा माँगता हूँ ।
( ३१३ )
मैं समस्त जीवां से क्षमा माँगता हूँ और सब क्षमा- दान दें। सर्व जीवों के साथ मेरी मैत्रीवृत्ति है; साथ मेरा वैर नहीं है ।
मैंने जो जो पाप मन बोले हैं और शरीर से किये
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(३१४)
संकल्पित किये हैं, वाणी से
जीव मुझे भी किसी के भी
से
हैं, वे मेरे सब पाप मिथ्या हो जायँ
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