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भिक्षु-सूत्र
(२६६)
जो ज्ञातपुत्र-भगवान् महावर के प्रवचनों पर श्रद्धा रखकर छह काय के जीवों को अपनी प्रात्मा के समान मानता है,जो अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों का पूर्ण रूप से पालन करता है, जे. पाँच प्रावों का संवरण अर्थात् निररोध करता है, वहो भिक्षु है ।
(२७ ..) जो सदा क्र.ध, मान, माया और लोभ इन चार इ.पाय का परित्याग करता है, जो ज्ञानी पुरघो के वचनों का दृढविश्वासी रहता है, जो चाँदो, सेना अादि किसी भी प्रकार का परिग्रह नहीं रखता, जो रहस्यों के साथ कोई भी सांसारिक स्नेह-सम्बन्ध नहीं जोड़ता, वही भित्तु है ।
(२७१) जो सम्यग्दर्शी है, जो कर्तव्य-विमूढ़ नहीं है, जो ज्ञान, तप और संयम का दृढ़ श्रद्धाल है, जो मन, वचन और शरर को पाप-पथ पर जाने से रे.क रखता है, जो तप के द्वारा पूर्व-कृत पाप-कर्मों को नष्ट कर देता है, वहीं भिक्षु है।
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