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भिक्षु-सूत्र
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जो जाति का अभिमान नहीं करता; जो रूप का अभिमान नहीं करता; जो लाभ का अभिमान नहीं करता, जो श्रुत (पांडित्य) का अभिमान नहीं करता; जो सभी प्रकार के अभिमानों का परित्याग कर केवल धर्म-ध्यान में ही रत रहता है; वही भिन्तु है।
(२८०) ... जो महामुनि आर्यपद (सधर्म ) का उपदेश करता है, जो स्वयं धर्म में स्थित होकर दूसरों को भी धर्म में स्थित करता है, जो घर-गृहस्थी के प्रपंच से निकल कर सदा के लिये कुशील लिंग (निन्द्यवेश) को छोड़ देता है, जो किसी के साथ हंसी-ठट्टा नहीं करता, वही भिक्षु है।
(२८१) इस भाँति अपने को सदैव कल्याण-पथ पर खड़ा रखनेवाला भितु अपवित्र और क्षणभंगुर शरीर में निवास करमा हमेशा के लिये छोड़ देता है; जन्म-मरण के बन्धनों को सर्वथा काटकर अपुनरागमगति ( मोक्ष ) को प्राप्त होता है।
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