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ब्राह्मण-सूत्र
१४५ ( २६४ ) जो स्त्री-पुत्र आदि का स्नेह पैदा करनेवाले पूर्व सम्बन्धों को, जाति-बिरादरी के मेल-जोल को तथा बन्धु-जनों को एक बार त्याग देने पर उनमें किसी प्रकार की आसक्ति नहीं रखता, पुन: कामभोगों में नहीं फँसता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
- सिर मुडा लेने मात्र से कोई श्रमण नहीं होता, 'श्रोम्' का जाप कर लेने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता, निर्जन वन में रहने मात्र से कोई. मुनि नहीं होता, और न कुशा के बने वस्त्र पहन लेने मात्र से कोई तपस्वी ही हो सकता है ।
(२६६) समता से श्रमण होता है; ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है; ज्ञान से मुनि होता है; और तप से तपस्वी बना जाता है ।
(२६७ ) _मनुष्यः कर्म से ही ब्राह्मण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय होता है, कर्म से ही वैश्य होता है और शूद्र भी अपने किए गए कर्मों से ही होता है। (अर्थात् वर्ण-भेद जन्म से नहीं होता । जो जैसा अच्छा या बुरा कार्य करता है, वह वैसा ही ऊँच या नीच हो जाता है।)
(२६८) इस भांति पवित्र गुणों से युक्त जो द्विजोत्तम [श्रेष्ठ ब्राह्मण] हैं, वास्तव में वे ही अपना तथा दूसरों का उद्धार कर सकने में समर्थ हैं।
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