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आत्म-सूत्र
१२५ उसे इन्द्रियाँ कभी विचलित नहीं कर सकतीं, जैसे—भीषण बवंडर सुमेरु पर्वत को ।
(२२) समस्त इन्द्रियों को खूब अच्छी तरह समाहित करते हुये पापों से अपनी आत्मा की निरंतर रक्षा करते रहना चाहिये। पापों से अरक्षित अात्मा संसार में भटका करती है, और सुरक्षित आत्मा संसार के सब दु:खों से मुक्त हो जाती है।
(२२१) शरीर को नाव कहा है, जोव को नाविक कहा जाता है, और संसार को समुद्र बतलाया है । इसी संसार-समुद्र को महर्षिजन पार करते हैं ।
(२२२) जो प्रव्रजित होकर प्रमाद के कारण पांच महाव्रतों का अच्छी तरह पालन नहीं करता, अपने-आपको निग्रह में नहीं रखता, कामभोगों के रस में अासक्त हो जाता है, वह जन्म-मरण के बन्धन को जड़ से नहीं काट सकता ।
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