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( vii )
का माल ही न रहे । अनशन में, उपवास के बिल्कुल विपरीत, भावमी चौबीस घंटे शरीर के पास रहता है जितना कि खाने वाला भी नहीं रहता। उसके मन में दिन भर खाना चलता रहता है। उपवास और अनशन बिस्कुल विरोषो . प्रक्रियायें हैं।
बात्मदर्शन की प्रक्रिया में ध्यान का गहरा स्थान है। वह मात्मानुभूति का एकमात्र उपाय है। ध्यान के दो औरण है: प्रतिक्रमण और सामायिक । प्रतिक्रमण का अर्थ है कि जहां-जहां चेतना गई, वहां-वहां से उसे वापिस पुकार लेना; मित्र के पास से, शत्रु के पास से, परनी के पास से, बेटे के पास से, मकान से, धन से, सब ओर से उसे वापिस बुला लेना। सामायिक का अर्थ है समय में यानी आत्मा में होना । प्रतिक्रमण प्रक्रिया है चेतना को भीतर लौटाने की। सामायिक प्रक्रिया है बाहर से लौटी हई चेतना को आत्मा में बैठाने, की। प्रतिक्रमण और सामायिक मार्ग है, दर्शन उपलब्धि है। सामायिक में स्थिर हो जाना आत्मा में प्रवेश करना है।
मोप यात्रा का अन्त है। प्रत्येक मुत्यु में स्थूल देह मरती है, भीतर का सूक्ष्म शरीर नहीं मरता। सूक्ष्म शरीर एक जोड़ है जो आत्मा और शरीर को • पृथक नहीं दिखने देवा । लेकिन जब व्यक्ति न कर्ता रहा है, न भोक्ता रहा है, न प्रतिक्रिया करता है, केवल साती रह जाता है तब सूक्ष्म शरीर पिघलने लगता है, बिखरने लगता है। फिर आत्मा और शरीर पृषक् दिखते हैं और व्यक्ति समझ लेता है कि यह पाखिरी यात्रा है। , .
मगर मोक्ष के द्वार से भी वह करणावश लोट सकता है सत्य की अभि. व्यक्ति के लिए। महावीर उन व्यक्तियों में है जो मोष के द्वार से लौट आए हैं। उनकी बारह वर्ष की जो साधना है वह सत्य की उपलब्धि के लिए नहीं क्योंकि उपलब्धि तो उन्हें पिछले जन्म में ही हो गई है। साधना इसलिए है कि वह जीवन के सब तलों तक, सब रूपों तक, पत्थर से लेकर देवता तक, सत्य का अभिव्यक्त कर सकें। उनकी यह सतत चेष्टा रही है भूत. जड़, मूक जगत् में अनुभूति तरंगें पहुंचाने की । और इस चेष्टा में इतना गहरा तावात्म्य हो गया है मूक, जड़ जगत् से कि कान में कोलें भी ठुकें तो पता न चले क्योंकि वह बट्टान हो गए है। महीनों बीत जाएँ, भोजन को चिन्ता नहीं क्योंकि तादात्म्य हो जाने पर मूक जगत् से सन्हें सूक्म भोजन भी मिल सकता है। महावीर के सम्बन्ध में यह धारणा भगवान् श्री को बिल्कुल अपनी मौलिक है।