Book Title: Mahavir 1934 08 to 12 Varsh 01 Ank 05 to 09
Author(s): Tarachand Dosi and Others
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Porwal Maha Sammelan
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( २० ) मनि चन्द्रपरि रामचन्द्र मुनि की ऐसी बढ़ती कला देख बहुत प्रसन्न हुए । अपने शिष्य को प्रभाव शाली देख किस गुरु का हृदय आनन्दित न होता होगा ? उन्होंने रामचन्द्र मुनि को सम्पूर्ण योग्य समझ उनको आचार्य पद देने का विचार किया। मुनिचन्द्रसरि ने अपना यह विचार पाटन के श्री संघ के सामने रखा। श्री संघ ने गुरु आज्ञा को शिरोधार्य कर बहुत बड़ा उत्सव किया और समारोह के साथ मुनिचन्द्रसूरि के हाथ से रामचन्द्र मुनि को प्राचार्य पद दिया गया। उस समय उनका नाम देवमूरि रखा गया। इस प्रसंग पर उनकी भाजी साध्वी हो गई थी उनको भी महत्तरा पद दिया और उनका नाम चन्दन बाला रखा गया ।
आचार्य पद होने के पश्चात् उनका जीवन कोहनूर हीरे के समान चमकने लगा। उनके हृदय में धर्म के प्रति अथाह लगन थी। धर्म का गौरव बढ़ाने के वास्ते गुरु महाराज की आज्ञा लेकर मारवाड़ की ओर विहार किया। जब वे विहार करते २ आबू पाये और पहाड़ पर चढ़ने लगे तब उनके साथ अम्बाप्रसाद नामक एक दिवान भी था। उसको मार्ग में काले नाग ने डस लिया और वह उसके विष से पृथ्वी पर गिर पड़ा। यह दृश्य देख श्री देवसरि ने उसके सामने अपनी दयापूर्ण दृष्टि फेंकी। उनकी दृष्टि, विशुद्ध चारित्र के बल से इस प्रकार चमत्कारिक बन गई थी कि उस दृष्टि के पड़ते ही अम्बाप्रसाद का जहर काफूर होगया और जिस प्रकार मनुष्य नींद से उठता है उसी प्रकार उठ कर देवमूरि का उपकार मानने लगा।
उपर्युक्त घटना के पश्चात् यहां दूसरी घटना यह बनी कि श्री अम्बिका देवी प्रगट हो सूरिजी से कहने लगी कि आप अभी मारवाड़ की ओर बिहार न करो कारण कि आपके गुरू के आयुष्य में केवल आठ ही मास शेष रहे हैं। यह सुन देवसरि पीछे लौटे और पाटन में आकर गुरू सेवा में तत्पर हुए ।
उस समय पाटन की राजगद्दी पर प्रतापी राजा सिद्धराज जयसिंह राज्य करता था। उसकी सभा में विद्वानों को अच्छा आदर मिलता था। इसलिये वहां देश विदेश के विद्वान आकर अपनी विद्वत्ता का परिचय देते थे। राजा भी पंडितों का अच्छा स्वागत करता और उनकी योग्य कदर कर पारितोषिक देता था।