Book Title: Mahavir 1934 08 to 12 Varsh 01 Ank 05 to 09
Author(s): Tarachand Dosi and Others
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Porwal Maha Sammelan

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Page 26
________________ ( २४ ) हार हुई है। इससे देवमूरि की सर्वत्र विजयघोषणा हुई। यह वाद लगातार पन्द्रह दिन तक चला और इसकी नोट राज्य के दफ्तर में ली गई इस प्रसंग की याद के वास्ते सिद्धराज जयसिंह एक जयपत्र, एक लाख द्रव्य और बारह गाँव भेट करने लगा, किन्तु देवसूरि ने अपने साधु धर्मानुसार उसे स्वीकार करने की स्पष्ट मना की। जब अधिक आग्रह किया गया तव उस द्रव्य से श्री ऋषभदेवजी का मन्दिर बनवाया गया। उसकी प्रतिष्ठा के अवसर पर श्री देवसूरि के साथ अन्य तीन आचार्य भी उपस्थित थे। कुमुचन्द्र की सख्त हार होने से वह दक्षिण को लौट गये। .. वादिदेवमूरि के परम भक्त नागदेव और थाहड़ नाम के श्रीमन्त श्रावकों ने इस विजय के उपलक्ष में बहुत बड़ा उत्सव किया और हजारों को दान दिया। वाद के समय उपस्थित रहे हुए कलिकालमर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य आदि पण्डितों ने इस वाद की भूरि भूरि प्रशंसा की है। इसके पश्चात् के ग्रन्थकारों ने भी इसकी खूब प्रशंसा की है। "मुद्रित कुमुदचन्द्र" नामक नाटक भी इस प्रसंग को याद रखने के लिये लिखा गया है । वादिदेवसूरि ने अनेक वाद विवाद कर इस विषय में जो गहरा अनुभव प्राप्त किया, उस अनुभव का वर्णन उन्होंने "स्याद्वादरत्नाकर" नाम के ग्रन्थ में लिखा है। स्याद्वादरत्नाकर प्रमाणनयतत्वालोक की बड़ी टीका है। उसमें अनेक वाद भरे हुए हैं। उसका विषय गहन होते हुए भी उसकी भाषा प्रौढ़, सुन्दर तथा सरल है। कहा जाता है कि वह सारा ग्रन्थ चौरासी हजार श्लोकों का था। वर्तमान में उसके लगभग पच्चीस हजार श्लोक मिलते हैं। शेष श्लोकों का नाश मुसलमानों के हाथ से हुआ हो या किसी भंडार में पड़े हो ठीक २ नहीं कहा जाता। - इसके अतिरिक्त उनके बनाये हुए भिन्न २ भाषाके ग्रन्थों की सूची निम्न लिखित है .. (१) प्रमाणनय तत्त्वालोक * । . ( २ ) स्याद्वाद रत्नाकर । ( प्रथम ग्रन्थ की टीका ) * कई वर्षों से यह ग्रन्थ प्रमाणनय तत्त्वा लोकालंकार के नाम से प्रसिद्ध था परन्तु न्याय साहित्य तीर्थ मुनि श्री हिमांशुविजयजी ने इस विषय का विशेष अध्ययन कर पता लगाया कि इसका मूल नाम तो वादिदेवसूरि ने प्रमाणनयतत्वालोक ही रखा था।

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