Book Title: Mahavir 1934 08 to 12 Varsh 01 Ank 05 to 09
Author(s): Tarachand Dosi and Others
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Porwal Maha Sammelan

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Page 69
________________ नहीं करते हैं परन्तु उनको अपने धर्म का पता नहीं है। अगर उनका उद्धार करना हो तो थोड़े परिश्रम से शीघ्र हो सकता है। साथ २ एक बात और है कि बङ्गाल देश में मांसाहार तथा बलिदान की प्रथा बहुत बुरी नजर आती है परन्तु अभीतक उसको रोकने वाली वहां बम्बई अथवा मद्रास जैसी कोई भी (The Humanitarian League) अहिंसा प्रचारक संस्था नहीं है। बम्बई मद्रास की संस्थाओं ने थोड़े ही दिनों में लाखों प्राणियों को अभय दान देकर तथा हजारों मनुष्यों का मांसाहार छुड़ा कर जैन धर्म के अनुपम अहिंसा सिद्धान्त की अपूर्व सेवा बनाई है तो बङ्गाल का जैन समाज ऐसी संस्था खोले तो विशेष सफल हो सकता है क्योंकि बम्बई और मद्रास वाले तो केवल व्यौपारी हैं और बङ्गाल वाले बड़े २ जमीनदार हैं इसलिये उनका प्रभाव विशेष होना सम्भव है। इसलिये खासकर मेरे यात्रा के अनुभव से बङ्गाल प्रान्तिय जैन समाज का इम नम्र अपील द्वारा इस तरफ लक्ष खींचता हूँ कि वे कृपाकर जैन धर्म तथा उनके अमूल्य सिद्धान्तों के प्रचार कार्य का मंगल मुहूर्त जैन धर्म की मातृभूमि में ही पहिले करने के लिये कटिबद्ध हो जाने और शासन सेवा का अपूर्व सौभाग्य प्राप्त करें। साथ २ हमारे पूज्य श्राचार्यों और अखिल भारतीय जैन समाज के नेतामों से भी नम्र निवेदन है कि जैन धर्म को जननी रूप मगध बंगलादि क्षेत्र में पधार कर जैन संस्कृति वृक्ष पुनः रोपने में तथा धीरे २ उसके मधुरं फल अपने पूर्वजनों की भांति अखिल संसार को खिलाने में अपना परम कर्तव्य समझ उसके लिये भरसक प्रयत्न करें, ऐसी भाशा में यह लेख लिखा है, क्योंकि ( Census Figure ) जन संख्या रिपोर्ट देखने से जैन समाज दिन २ घटता हुआ नजर आता है करोड़ों से अब लाखों में रहा है और उसको भी नाश करने वाले अनेक हानिकारक रिवाज ( Evil customs ) घुसे हैं इसलिये भविष्य शताब्दियों ( Centuries ) में शायद ही जैन धर्म का अस्तित्व रहना सम्भव है। इसलिये जोर देकर लिखना पड़ता है कि समाज में ( Jain Missionary work ) जैन धर्म प्रचारक कार्य की अत्यन्त आवश्यकता है। इसलिये हे मेरे पूज्य नेताओं ! जिस धर्म के प्रसाद से धन, बुद्धि और कुटुम्बादि सब प्रकार की सामग्री प्राप्त हुई है अर्थात् अमूल्य मानव जन्म मी उस धर्म के. प्रताप से मिला है तो उस परमोपकारी धर्म की सेवा बजाने में त्रुटि नहीं रखना यह प्रथम कर्त्तव्य समझे। केवल धर्म के साधन बनाने से धर्म की रक्षा नहीं हो

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