Book Title: Mahavir 1934 08 to 12 Varsh 01 Ank 05 to 09
Author(s): Tarachand Dosi and Others
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Porwal Maha Sammelan
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श्रात्मसंयम नहीं कर सकता है वह यंत्र बिना का नाविक है। वह प्रत्येक वायु की लहरों की दया पर रहता है । प्रत्येक प्रवेश का तोफान, प्रत्येक निरंकुश विचार तरंग उसको इधर उधर भटकाया करती हैं, उसको मार्गच्युत करती हैं और उसको उसके लक्ष्य स्थान पर नहीं पहुँचने देती हैं ।
श्रात्मसंयम यह चारित्र का प्रधान अंग है । अत्यन्त छेड छाड़ के प्रसंग पर जरा भी मिजाज खोये बिना शान्ति और दृढ़ता पूर्वक सीधी दृष्टि से देखने को शक्तिमान होने से हमें जितना सामर्थ्य प्राप्त होता है उतना सामर्थ्य हमें दूसरी किसी भी वस्तु से प्राप्त नहीं होता है तुम एक बार नहीं परन्तु हमेशा स्वयम् के स्वामी ही हो ऐमी प्रतीति से तुम्हारे चारित्र को जितनी महत्ता, बल और पुष्टि मिलती है उतनी दूसरी किसी वस्तु से नहीं मिल सकती | विचार पर स्वामीत्व प्राप्त करने से तुम अपने आप के स्वामी बन सकते हो ।
भाभी का ताना
ले० बनोरिया जैन मेवाड़ी
ग्रीष्म ऋतु के दिन थे। दोपहर का समय था । धूप तेजी से पड़ रही थी । ऐसे समय में एक युवक अपने सिर पर कपड़े की गठरी और हाथ में कपड़े धोने की मुग्दल लिए हुए अपनी धुन में मस्त चाल से नदी की ओर से चला आ रहा था। घर आकर अपने सिर से कपड़े की गठरी नीचे रखी और मुग्दल को एक ओर कोने में रख शान्ति लेने नीचे बैठा ।
पाठक यह युवक अन्य कोई नहीं भावसार जाति का टीमाणीया गौत्र का "वीर विक्रमसी" था । उसका निवास स्थान महान तीर्थ श्री शत्रुंजयगिरि की शीतल छाया में रहा हुआ पालीताने में था वह विस्तार परिवार वाला था, किन्तु उसके स्त्री न थी । उसके माई तथा भाभी आदि कुटुम्ब में थे । वे सभी एक ही साथ रहते थे और कपड़े रंगने का धन्धा कर अपना निर्वाह चलाते थे
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