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महाबंध पदेसबंधाहियारे
समुक्कित्तणाणुगमो
१४५. समुत्तिणाए दुवि० - ओघे० आदे० | ओघे० सव्चपगदीणं अस्थि भुजगावंगा अप्परबंधगा अवदिबंधगा अवत्तव्वबंधगा य । एवं ओघभंगो मणुस ०३पंचिंदि० -तस०२ - पंचमण० पंचवचि ० कायजोगि०-ओरालियका० आभिणि-सुदं-अधि०मणपज० - संज० - चक्खुदं० - अचक्खुर्द ० - सुकले० - भवसि ० -सम्मादि ० खड्ग ० - उबसम ०सणि आहारगति ।
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१४६. णिरसु धुवियाणं अस्थि भुज० - अप्पदर० अवद्विद० । सेसाणं ओघभंगो । एवं सव्वरइए । वरि पढमाए तित्थयरं ध्रुवियाण भंगो । विदियाए तदियाए साद० भंगो । एदेण बीजेण याव अणाहारग त्ति दव्वं । णवरि वेडव्वियमि० - आहार मि ध्रुवियाणं अस्थि भुज० । सेसाणं परियत्तमाणियाणि अत्थि भुजगार ०-अवत्तव्य० । विशेषार्थ - जिन तेरह अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर भुजगारबन्धका कथन किया जा रहा है, उनके नाम ये हैं —- समुत्कीर्तना, स्वामित्व, काल, अन्तर, भङ्गत्रिचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व |
समुत्कीर्तनानुगम
१४५. समुत्कीर्तनाकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंके भुजगारबन्धक, अल्पतरबन्धक, अवस्थितबन्धक और अवक्तव्यबन्धक जीव हैं । इसी प्रकार ओके समान मनुष्यत्रिक, पञ्चेन्द्रियद्विक, सद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, आभिनिवोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, चतुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, शुक्लेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंमें जानना चाहिए।
विशेषार्थ - ओघ से सब प्रकृतियोंका भुजगार, अल्पतर और अवस्थितबन्ध तो सम्भव है ही, क्योंकि योगकी घटा-बढ़ी होनेसे और एक समान योगके रहनेसे ये पद सब प्रकृतियोंके बन जाते हैं। साथ ही जो अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं, उनका अवक्तव्यबन्ध भी सर्वत्र सम्भव है और जो ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं, उनकी यथायोग्य स्थानमें बन्धव्युच्छित्ति होकर पुनः पूर्वस्थान प्राप्त होनेपर उनका बन्ध होने लगता है, इसलिए ओघसे इनका भी अवक्तव्यबन्ध बन जाता है । यहाँ मनुष्यत्रिक आदि जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं, उनमें जहाँ जितनी प्रकृतियों का बन्ध होता है, उनमें ओघके अनुसार भुजगार आदि चारों पद बन जाते हैं, इसलिए उन मार्गणाओं में ओघके समान प्ररूपणा जानने की सूचना की है।
१४६. नारकियों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगारबन्धक, अल्पतरबन्धक और अवस्थितबन्धक जीव हैं । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । इसी प्रकार सब नारकियों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पहली पृथिवीमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके समान है । तथा दूसरी और तीसरी पृथिवीमें तीर्थङ्करप्रकृतिका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। इस बीजपदके अनुसार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए। इतनी विशेषता है कि वैक्रियिकमिश्र काययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली १ ता० प्रती 'अभिणि० मदिसुद' इदि पाठः ।
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