Book Title: Mahabandho Part 7
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 266
________________ वडिबंधे अंतरं २४५ पुवकोडिपुध० । सेसाणं असंखेंजगुणवड्डि-हाणि भुज० अप्प०अंतरभंगो। तिण्णिवड्डिहाणि-अवहि अवद्विदंतरं कादव्वं । अवन० अवत्तव्वं तरं कादव्वं'। २८५. देवेसु भुजगारभंगो। णवरि एसिं अणंतभागवडि-हाणि. अत्थि तेसिं पगदीणं अंतरं कादव्वं । असंखेजगुणवड्डि-हाणि. भुजगार-अप्पदरंतरं कादव्यं । सेसाणं अवट्ठिदभंगो कादव्वो । एवं सव्वदेवाणं अप्पप्पणो अंतरं कादव्वं ।। ___२८६. सव्वएइंदिय-विगलिंदिय-पंचकायाणं भुजगारभंगो कादव्यो । पंचिंदि०तस०२ सव्वपगदीणं भुजगारभंगो। णवरि एसिं अणंतभागवडिव-हाणि० अस्थि तेर्सि अंतरं सगढिदि० कादव्वं । असंखेंजगुणवड्डि-हाणि. भुज-अप्पदरंतरं कादव्यं । तिणि वड्डि-हाणि-अवट्ठिदस्स अवद्विदंतरं कादव्वं । सव्वपगदीणं अवत्त० अप्पप्पणो भुजगार-अवत्त०भंगो कादव्यो । पल्य है। शेष प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका अन्तर भुजगारके अल्पतरके समान है। तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदका अन्तर भुजगारके अवस्थित पदके अन्तरके समान है। तथा अवक्तव्यपदका अन्तर भजगारके अवक्तव्यके समान है। विशेषार्थ-मनुष्योंकी कायस्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है, इसलिए इनमें छह दर्शनावरण आदिकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य बन जाता है। शेष कथन स्पष्ट ही है। २८५. देवों में भुजगारके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि जिन प्रकृतियोंकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि है,उनके इन पदोंका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान कर लेना चाहिए । असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका अन्तर भुजगारके अल्पतरके समान करना चाहिए। तथा शेष पदोंका भुजगारके अवस्थितके समान अन्तर करना चाहिए। इसी प्रकार सब देवोंमें अपना-अपना अन्तर करना चाहिए। विशेषार्थ-देवों में उत्कृष्ट भवस्थिति तेतीस सागर है, इसलिए इनमें जिनकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि है, उनके इन पदोंका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर बन जाता है। शेष कथन सुगम है। २८६. सब एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंमें भुजगारके समान भङ्ग करना चाहिए। पञ्चेन्द्रियद्विक और त्रसद्विक जीवोंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग भुजगारके समान करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जिन प्रकृतियोंकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि है उनका अन्तर अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार करना चाहिए। असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका भुजगारके अल्पतरके समान अन्तर कर लेना चाहिए । तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितका अवस्थितके समान अन्तर कर लेना चाहिए। तथा सब प्रकृतियोंके अवक्तव्य पदका अपने-अपने भुजगारके अवक्तव्यके समान अन्तर कर लेना चाहिए । विशेषार्थ-पञ्चेन्द्रियोंकी कायस्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक एक हजार सागर और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंको · कायस्थिति सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण है। तथा त्रसकायिक जीवोंकी १. आ०प्रतौ 'अवत्त० अवत्तव्वगंतरं कादव्य' इति पाठो नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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