Book Title: Mahabandho Part 7
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 314
________________ वडिबंधे अंत २६३ ३२२. अवगदवे. सव्वपगदीणं असंखेंजगुणवड्डि-हाणि० जह० एग०, उक्क० तिर्यश्चायुका एकेन्द्रिय आदि यथासम्भव सब जीव बन्ध करते हैं और वहाँ उनके सब पद निरन्तर सम्भव हैं, इसलिए इनके सब पदवाले जीवोंके अन्तरकालका निषेध किया है। परावर्तमान सब प्रकृतियोंके विषयमें यही बात जाननी चाहिए। नरकायु आदि तीन आयुओंका अधिकसे अधिक असंख्यात जीव ही बन्ध करते हैं, इसलिए इनका निरन्तर बन्ध तो सम्भव ही नहीं है, क्योंकि एक तो आयुबन्धका कुल काल अन्तमुहूर्त है और वह भी त्रिभागमें बन्ध होता है, इसलिए इनकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जानेसे वह उक्तप्रमाण कहा है। परन्तु इन तीनों आयुओंके बन्धमें जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चौबीस मुहूर्त प्राप्त होता है, इसलिए इनके शेष पदवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। यद्यपि वैक्रियिकषट्कका बन्ध करनेवाले असंख्यात और आहारकद्विकका बन्ध करनेवाले संख्यात जीव है, फिर भी इनका किसी-न-किसीके नियमसे बन्ध होता रहता है, इसलिए इनको असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानि सर्वदा होती रहनेसे इनके अन्तरकालका निषेध किया है । पर तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदके विषयमें यह बात नहीं है। ये कमसे कम एक समय तक न हों, यह भी सम्भव है और अधिकसे अधिक जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक न हों, यह भी सम्भव है, इसलिए इन पदवाले जीवोंका उक्तप्रमाण अन्तरकाल कहा है । तथा इनका अवक्तव्यपद कमसे कम एक समयके अन्तरसे और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्तके अन्तरसे होता है, इसलिए इनके इस पदवाले जीवोंका उक्त कालप्रमाण अन्तर कहा है। तीर्थङ्करप्रकृतिके सब पदवाले जीवोंका यह अन्तरकाल इसी प्रकार बन जाता है, इसलिए इसे वैक्रियिकषट्कके समान जाननेकी सूचना की है। पर इसके अवक्तव्यपदके अन्तर कालमें फरक है, इसलिए उसका अलगसे निर्देश किया है। मात्र दूसरे और तीसरे नरकमें तीर्थङ्करप्रकृतिका बन्ध करनेवाले मनुष्य कमसे कम एक समयके अन्तरसे उत्पन्न हो,यह भी सम्भव है और अधिकसे अधिक पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके अन्तरसे उत्पन्न हों, पह भी सम्भव है, इसलिए नारकियों में इसके अवक्तव्यपदका बन्ध करनेवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय कहा है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । यहाँ मूलमें काययोगी आदि जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें यह ओघप्ररूपणा बन जाती है, इसलिए उनमें ओघके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र औदारिकमिश्रकाययोगमें देवगतिपश्चककी असंख्यातगुणवृद्धि ही होती है। तथा कोई भी सम्यग्दृष्टि इस योगवाला न हो तो कमसे कम एक समय तक नहीं होता और अधिकसे अधिक मासपृथक्त्व काल तक नहीं होता, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंके उक्त पदवाले जीवांका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर मासपृथक्त्वप्रमाण कहा है। इस योगमें तीर्थङ्करप्रकृतिकी भी एक असंख्यातगणवृद्धि ही होती है। साथ ही यह नियम है कि तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाला यदि मनुष्योंमें जन्म न ले तो कमसे कम एक समय तक नहीं लेता और अधिकसे अधिक वर्षपृथक्त्व काल तक नहीं लेता, इसलिए यहाँ इस प्रकृतिके उक्त पदवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण कहा है। कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें औदारिकमिश्रकाययोगमें कही कई अन्तरप्ररूपणा बन जाती है, इसलिए इनमें औदारिकमिश्रकाययोगके समान जाननेकी सूचना की है। ३२२.अपगतवेदवाले जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है । तीन वृद्धि, तीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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