Book Title: Mahabandho Part 7
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 332
________________ जीवसमुदाहारे अप्पाबहुरं ३११ एवं ओषभंगो तिरिक्खोघं कायजोगि-ओरालियका-ओरालियमि०-कम्मइका०-णस०कोधादि०४-मदि-सुद०-असंजद-अचक्खुदं०-तिण्णिले०-भवसि०-अभवसि० -मिच्छादि०असण्णि-आहार०-अणाहारग त्ति । णवरि ओरालियमि०-कम्मइ०- अणाहार० देवगदिपंचग० ओघं । णवरि संचज्जं कादव्वं । ३४५. णिरएसु छदंस०-बारसक०-सत्तणोक०-तिरिक्खाउ० सव्वत्थोवा उक्क०पदे. बं० जीवा । जह० पदे०६० जीवा असंखेंजगु० । अज०मणु०पदे०६० जीवा असं०गु० । मणुसाउ० सव्वत्थोवा उक्क०पदे०ब जीवा । जह०पदे०० जी० संखेंजगु। अजह०मणु०पदे०६० जीवा संखेंजगु० । सेसाणं पगदीणं तित्थय० सव्वत्थोवा जह०पदे०६० जीवा । उक्क०पदे०ब जीवा असं०गु० । अजह०मणु०पदे०७० जीवा असं०गु० । एवं सत्तसु पुढवीसु । सव्वत्थोवा............ "संखेंज कादव्वं । ४४६. तिरिक्खेसु ओघं । पंचिंदियतिरिक्खि० सव्वपगदीणं सव्वत्थोवा उक्क०पदेब जीवा । जह०पदेब जीवा असंखेंजगु० । अजह०मणु०पदेव जीवा असं गु० । देवगदि०४ ओघभंगो । पंचिंदियतिरिक्खपजत्त-जोणिणीसु पंचणा०थीणगि०३-दोवेदणी० - मिच्छ० - अणंताणु०४ - इत्थि० - मणुसाउ-देवाउ-देवगदि०४अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इस प्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यञ्च, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदवाले, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें देवगतिपञ्चकका भङ्ग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणे करना चाहिए । ३४५. नारकियोंमें छह दर्शनावरण, बारह कषाय, सात नोकषाय, और तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे जघन्य प्रदेशोंके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । मनुष्यायुके उत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे जघन्य प्रदेशोंके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । उनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियोंके तथा तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य प्रदेशोंके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे उत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए ।............संख्यात कहना चाहिए। ३४६. तिर्यश्चोंमें ओघके समान भङ्ग है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे जघन्य प्रदेशोंके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। देवगतिचतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्तक और पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च योनिनियोंमें पाँच ज्ञानावरण, स्त्यान गृद्धित्रिक, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चतुष्क, स्त्रीवेद, मनुष्यायु, देवायु, १. ता.आप्रत्योः 'असंगु०' इति पाठः। २. ता०आ०प्रत्योः 'असंखेजगु०' इति पाठः। ३. ता प्रतौ 'सव्वत्थोवा........रे संखेन्ज' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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