Book Title: Mahabandho Part 7
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 320
________________ बंधे अप्पा बहु २६६ हाणि० ० । अवट्ठि० असंखेंजगु० । उवरि ओघं । पुरिस० इत्थि० भंगो | णवुंसंग० विगाणं' इत्थ० भंगो । णवरि अवट्ठि० अनंतगु० । ३३०, कोधकसा० णत्रुंसगभंगो | माणे० पंचणा० चदुदंसणा ० - तिण्णिसंज० - पंचत● सव्वत्थोवा अवडि० । उवरि ओघं । मायाए पंचणा० - चदुदंसणा ० दोसंज० - पंचंत ० सव्वत्थोवाअवट्टि । उवरि ओघं । लोभकसाए ओघं । । ३३१. मदि- सुद० धुविगाणं सव्वत्थोवा अवट्ठि० । उवरि ओघं । सेसाणं वि ओघो । विभंगे धुविगाणं सव्वत्थोवा अवडि० । उवरि ओघं । असंखेञ्जगुणं कादव्वं । देवरादि-ओरालि० वे उव्वि ० - वेउब्वि ० अंगो०- देवाणु० - पर०-उस्सा० - बादर-पजत्त- पत्ते० सव्वत्थोवा अवत्त० । अवट्ठि० असं० गु० । एवं [ अ ] संखेज्जगुणं कादव्वं । सेसाणं ओघं । ३३२. आभिणि-सुद-ओधि० पंचणा०- [ छदंस० ] अपञ्चक्खाण०४- पुरिस०भय-दु० - दोगंदि - पंचिंदि० - ओरालि०-वेउब्वि० तेजा ० क० - समचदु० - दोअंगो०- वञ्जरि०वण्ण ०४ - दोआणु० -अगु०४ - पसत्थ० -तस०४- सुभग- सुस्सर-आदें० - णिमि० - तित्थ ० उच्चा० भागहानि बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । आगे ओघके समान भङ्ग है । पुरुषवेदी जीवों में स्त्रीवेदी जीवोंके समान भङ्ग है । नपुंसकवेदी जीवों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों का भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनमें अवस्थितपदके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । ३३०. क्रोधकषायवाले जीवों में नपुंसक वेदवाले जीवोंके समान भङ्ग है । मानकषायवाले जीवों में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, तीन संज्वलन और पाँच अन्तराय के अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। आगे ओघके समान भङ्ग है । मायाकषायवाले जीवों में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, दो संज्वलन और पाँच अन्तरायके अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। आगे ओघके समान भङ्ग है। लोभकषायवाले जीवों में ओघके समान भङ्ग है । ३३१. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अवस्थित पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। आगे ओघके समान भङ्ग है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग भी ओघके समान है । विभङ्गज्ञानी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। आगे ओघके समान भङ्ग है । मात्र असंख्यातगुणा करना चाहिए। देवगति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी, परवात, उच्छ्रास, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकके अवक्तव्य पदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। आगे असंख्यातगुणा कहना चाहिए। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । ३३२. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, दो गति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, १. ता० प्रतौ 'पुंसक धुवि (१) धुविगाणं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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