Book Title: Mahabandho Part 7
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 279
________________ महाबंधे पदेसबंधाहियारे चदुदंस०-चदुसंज० णाणाभंगो। णवरि अणंतभागवड्डि-हाणि-अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० छावढि० सादि० । साद दंडओ णाणाभंगो। णवरि अवत्त० जह० उक० अंतो० । अपच्चक्खाण०४ एकववि-हाणी० ओघं । तिण्णिवड्वि-हाणि-अवढि० णाणा०भंगो। अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं० सादिः । एवं पञ्चक्खाण०४ । णवरि अणंतभागवड्डि-हाणी० जह० अंतो०, उक्क० छावहिसाग० सादि०। मणुसाउ० असंखेज्जगुणवड्डि-हाणी० जह० एग०, अवत्त० जह• अंतो०, उक्क० तेत्तीसं० सादि। तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० जह० एग०, उक्क० छावढि० सादि० । एवं देवाउ० । णवरि छावहिसागरो० देसू०। मणुसगदिपंचगस्स असंखेंजगुणवड्डि-हाणी. जह० एग०, उक० पुव्वकोडी सादि० | तिण्णिव ड्डि-हाणि-अवढि० जह० एग०, उक० छावढि० सादि० । अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सादि० । देवगदि०४ असंखेंजगुणवड्डिहाणी० जह० एग०, अवत्त० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं० सादि० । तिण्णिवाड्डिहाणि-अवढि० जह० एग०, उक्क० छावढिसाग० सादि०। एवं आहारदुगं । तित्थ० ओघं। और सबका उत्कृष्ट अन्तर साधिक छयासठ सागर है। चार दर्शनावरण और चार संज्वलनका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। इतनी विशेषता है कि इनकी अनन्तभागवृद्धि, अनन्तभागहानि और अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छयासठ सागर है। सातावेदनीय दण्डकका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। इतनी विशेषता है कि इस दण्डकके अवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अप्रत्याख्यानावरण चतुष्ककी एक वृद्धि और एक हानिका भङ्ग ओघके समान है। तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । इसी प्रकार प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका भङ्ग जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छयासठ सागर है। मनुष्यायुकी असख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानि जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छयासठ सागर है। इसी प्रकार देवायुका भङ्ग जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर कुछकम छयासठ सागर कहना चाहिए । मनुष्यगतिपञ्चककी असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक पूर्वकोटि है। तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छयासठ सागर है। अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। देवगतिचतुष्ककी असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और तीनोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छयासठ सागर है। इसी प्रकार आहारकद्विकका भङ्ग जानना चाहिए। तीर्थङ्करप्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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