Book Title: Mahabandho Part 7
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 288
________________ वडिबंधे णाणाजीवेहि भंगविचओ २६७ सम्मामि० - मिच्छादि० - सण्णि-असण्णि - आहारका० - अणाहार चि भुजगारभंगो कादव्वो। एवं अंतरं समत्तं । णाणाजीवेहि भंगविचओ ३०३. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दुवि०-ओघे० आदे० । ओषे० पंचणा०णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसकसा०-भय-दु०-ओरालि०-तेजा०-क०-वण्ण०४-अगु०-उप०णिमि०-पंचंत० चत्तारिवाड्डि-हाणि-अवढि० णियमा अत्थि । अवत्तव्वमा भयणिज्जा'। तिण्णि भंगो। तिण्णिआउगाणं सव्वपदा भयणिज्जा । वेउव्वियछक्कं आहारदुगं तित्थ० असंखेंजगुणवड्डि-हाणी. णियमा अत्थि । सेसपदा भयणिज्जा । सेसाणं पगदीणं सव्वपदा णियमा अस्थि । णवरि छदंस०-बारसक०-सत्तणोक० चत्तारिवाड्वि-हाणि-अवढि० णियमा अस्थि । अणंतभागवडि-हाणिबंधगा भयणिजाणि । ओघभंगो तिरिक्खोघो कायजोगिओरालिका० - ओरालिमि० - णqसग०-कोधादि०४-मदि०-सुद०-असंज-अचक्खुदं०शेष प्रकृतियोंका भङ्ग भुजगारके समान है। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंमें भुजगारके समान भङ्ग कहना चाहिए। विशेषार्थ--उपशमसम्यक्त्वका काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इसमें चार दर्शनावरण और चार संज्वलनकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त बन जानेसे वह उक्त कालप्रमाण कहा है। यहाँ इनकी अनन्तभागवद्धि, अनन्तभागहानि अवक्तव्य पद तो सम्भव हैं, पर ये पद यहाँ दो बार नहीं हो सकते; इसलिए उक्त प्रकृतियों के इन पदोंके अन्तरकालका निषेध किया है। मात्र उपशमसम्यक्त्वके कालमें संयमासंयम और संयमकी दो बार प्राप्ति और दो बार च्युति सम्भव है, इसलिए यहाँ प्रत्याख्यानावरणचतुष्ककी अनन्तभागवृद्धि, अनन्तभागहानि और अवक्तव्यपद दो बार बन जानेसे उनका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । शेष कथन स्पष्ट है। इस प्रकार अन्तरकाल समाप्त हुआ। नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय ३०३. नाना जीवोंका अवलम्बन लेकर भङ्गविचयानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थित पदके बन्धक जीव नियमसे हैं। अवक्तव्यपदके बन्धक जीव भजनीय हैं। भङ्ग तीन होते हैं। तीन आयुओंके सब पद भजनीय हैं। वैक्रियिकषटक, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानि नियमसे है। शेष पद भजनीय हैं। शेष प्रकृतियोंके सब पद नियमसे हैं । इतनी विशेषता है कि छह दर्शनावरण, बारह कषाय और सात नोकषायोंकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितपद नियमसे हैं । अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानिके बन्धक जीव भजनीय हैं। इस प्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यश्च, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाय १. आ०प्रतौ 'अवत्तबगा य भयणिजा' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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