Book Title: Mahabandho Part 7
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 265
________________ २४४ महाबंधे पदेसबंधाहियारे भुजगारअवद्विदंतरं कादव्वं । अवत्त० भुजगारअवत्तव्वं तरं कादव्वं । २८२. सव्वपंचिंदियतिरिक्खेसु सव्वपगदीणं भुजगारभंगो। णवरि एसिं अणंतभागवड्वि-हाणिक अस्थि तेसिं जह० अंतो०, उक्क० तिण्णि पलिदो० पुवकोडिपुधत्तं० । असंखेंजगुणवड्डि-हाणि० भुजगार-अप्पदरं कादव्वं । तिण्णिवड्डि-हाणि. अवद्विदस्स अवविदंतरं कादव्वं । एसिं अवत्तव्वं अत्थि तेसिं अवत्तव्वंतरं कादव्वं । २८३. सव्वअपञ्जत्तगाणं सव्वपगदीणं चत्तारिवाडि - हाणि-अवढि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । एसिं अवत्त० अत्थि तेसिं जह० उक्क० अंतो। २८४. मणुसेसु सव्वपगदीणं भुजगारभंगो कादम्वो। णवरि विसेसो अणंतभागवड्डि-हाणि० छदंस०-बारसक०-सत्तणोक० जह• अंतो०, उक्क० तिण्णि पलि. भुजगारके अवस्थित पदके अन्तरके समान करना चाहिए। तथा अवक्तव्य पदका अन्तर भुजगारके अवक्तव्य पदके अन्तरकालके समान करना चाहिए। विशेषार्थ तिर्यश्चोंमें यह दर्शनावरण, बारह कषाय और सात नोकषायकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि सम्भव है। तथा तिर्यश्चोंकी कायस्थिति अनन्त काल है, इसलिए इनमें इन प्रकृतियोंके उक्त पदोंका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण प्राप्त हो जानेसे उक्त प्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। २८२. सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चोंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग भुजगारके समान है। इतनी विशेषता है कि जिनकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि है, उनके उन पदोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है । असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका अन्तरकाल भुजगारके अल्पतरके समान करना चाहिए। तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित पदका अन्तरकाल भुजगारके अवस्थित पदके समान करना चाहिए। तथा जिन प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद है, उनके उस पदका अन्तरकाल भुजगारके अवक्तव्य के समान करना चाहिए। विशेषार्थ-पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिककी कायस्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है, इसलिए इनमें अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। २८३. सब अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा जिन प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद है उनके इस पदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त है। विशेषार्थ-अपर्याप्तकोंकी कायस्थिति ही अन्तमुहूर्त है, इसलिए इनमें सब प्रकृतियोंकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थित पदका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त बन जानेसे उक्तप्रमाण कहा है। तथा अवक्तव्य पदका सर्वत्र जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्तसे कम नहीं बनता, इसलिए यहाँ जिन प्रकृतियोंका यह पद सम्भव है,उनके इस पदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। २८४. मनुष्यों में सब प्रकृतियोंका भङ्ग भुजगारके समान करना चाहिए । इतनी विशेषता है कि छह दर्शनावरण, बारह कषाय और सात नोकषायकी अनन्तभागवृद्धि और अनन्त भागहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394