Book Title: Mahabandho Part 7
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 253
________________ २३२ महाबंधे पदेसबंधाहियारे अण्णद० । अवत्त० कस्स० ? अण्णद० पढमसमयआउगबंधमाणगस्स । एवं ओघभंगो मणुस०३-पंचिंदि०-तस०२-पंचमण-पंचवचि० - काययोगि-ओरालि० चक्खु०अचक्खु०-भवसि०-सण्णि-आहारग ति। णवरि मणुस०३-पंचमण-पंचवचि० ओरा० अवत्त'० देवो त्ति ण भाणिदव्वं ।। २७२. णिरएसु धुवियाणं चत्तारिखड्डि-हाणि-अवढि० कस्स.? अण्णद० । छदंस०-बारसक०-सत्तणोक० अणंतभागवड्डी कस्स० ? अण्णद० पढमसमयसम्मादिहिस्स । अणंतभागहाणी कस्स० ? अण्णद० पडिमाण० पढमसमयमिच्छादिढि० वा सासणसम्मा० वा। सेसाणं भुजगारभंगो। एवं सत्तसु पुढवीसु । सव्यतिरिक्ख-सव्वदेववेउव्वियका०-असंजद-किण्ण-णील-काऊणं णिरयभंगो। णवरि तिरिक्खेसु अणंतभागवड्डि-हाणी. संजदासंजदादो अस्थि त्ति णादव्यं ।। २७३. सव्वअपजत्तगेसु धुविगाणं चत्तारिवाड्डि-हाणि-अवढि० कस्स० १ अण्णद० । सेसाणं परियत्तियाणं ओघभंगो। एवं सव्वअपजत्तगाणं एइंदिय-विगलिंदिय-पंचकायाणं च। है ? प्रथम समयमें आयुबन्ध करनेवाला अन्यतर जीव स्वामी है । इस प्रकार ओघके समान मनुष्यत्रिक, पञ्चेन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँच मनोयोगी पाँच वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी और औदारिककाययोगी जीवों में अवक्तव्यपदका स्वामी देव है,ऐसा नहीं कहना चाहिए। विशेषार्थ-यहाँ ओघसे सब प्रकृतियोंके यथासम्भव पदोंका स्वामी कहा है। मात्र तीन वेद और चार नोकषायोंके सम्भव पदोंका स्वामित्व उपलब्ध नहीं होता सो जान कर घटित कर लेना चाहिए। २७२. नारकियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितपदका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है। छह दर्शनावरण, बारह कषाय और सात नोकषायको अनन्तभागवृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर प्रथम समयवर्ती सम्यग्दृष्टि जीव स्वामी है। अनन्तभागहानिका स्वामी कौन है ? अन्यतर गिरनेवाला प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीव स्वामी है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग भुजगार अनुयोगद्वारके समान है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए । सब तिर्यश्च, सब देव, वैक्रियिककाययोगी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले और कापोतलेश्यावाले जीवोंमें मारकियोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चोंमें अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि संयतासंयतके सम्पर्कसे भी होती है । अर्थात् संयतासंयतमें भी अनन्तभागवृद्धि होता है और उससे गिरनेवाले जीवके भी अनन्तभागहानि होती है,ऐसा जानना चाहिए। २७३. सब अपर्याप्तक जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितपदका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है। शेष परावर्तमान प्रकृतियोंका भङ्ग १. आ०प्रतौ 'तस० पंचमण पंचवचि० ओरा० अवत्त०' इति पाटः । २. ता० प्रतौ 'सव्वा (व्व ) अपजत्तगेसु' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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