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महाबंधे पदेसंबंधाहियारे
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१६७. णिरसु धुवियाणं दोपदा सव्वद्धा० । अवट्ठि० जह० एग०, उक्क० आवलि०' असंखें । एवं तित्थयरं । णवरि अवत्त० जह० एग०, उक० संखेजस • पढमाए तित्थ०' अवत्त० णत्थि । सेसाणं पगदीणं भुज० अप्प० सव्वद्धा । अवट्ठि ०अवत्त० जह० एग०, उक्क० आवलि० असंखें । तिरिक्खाउ० ओघं णिरयाउभंगो । मणुसाउं० भुज ० - अप्प० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवट्ठि ० -अवत्त० जह० एग०, उक्क० संखेजसम० । एवं पोर गाणं णेदव्वं ।
१६८. तिरिक्खेसु धुवियाणं तिष्णि पदा सवद्धा । सेसाणं ओघं । पंचिंदिय
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तिर्यवायु, दो गति, पाँच जाति, छह संस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्रास, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, प्रसादि दस युगल और दो गोत्र ।
१६७, नारकियोंमें ध्रुबबन्धवाली प्रकृतियोंके दो पदवाले जीवोंका काल सर्वदा है । अवस्थितपढ़के बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यात बें भागप्रमाण है । इसी प्रकार तीर्थङ्करप्रकृतिकी अपेक्षा काल जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । मात्र प्रथम पृथिवीमें तीर्थङ्कर प्रकृतिका अवक्तव्यपद नहीं है । शेष प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । इनके अवस्थित और अवक्तव्य पढ़के बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तिर्यवायुका ओघसे नरकायुके समान भङ्ग है । मनुष्यायुके भुजगार और अल्पतरपढ़के बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । इसीप्रकार सब नारकियों में ले जाना चाहिए ।
विशेषार्थ — यहाँ मनुष्यायुको छोड़कर शेष सब प्रकृतियोंके भुजगार और अल्पतर पदवाले जीवोंका काल सर्वदा है, यह स्पष्ट ही है। तथा नारकी जीव असंख्यात हैं, इसलिए यहाँ जिन प्रकृतियोंका अवस्थितपद सम्भव है और जिन प्रकृतियोंके अवस्थित और अवक्तव्य दोनों पद सम्भव हैं, उनके इन पदोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। मात्र तीर्थङ्कर प्रकृतिके अवक्तव्यपदवाले जीव और मनुष्यायुके अवस्थित और अवक्तव्यपदवाले जीव संख्यातसे अधिक नहीं हो सकते । यही करण है कि यहाँपर इन दो प्रकृतियोंके उक्त पढ़वाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका अवक्तव्यपद प्रथम नरकमें नहीं होता; यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए। एक बात और है और वह तिर्यश्वायुके सम्बन्धमें है । बात यह है कि किसी भी आयुका बन्ध आयुबन्ध के काल में अन्तर्मुहूर्त से अधिक काल तक नहीं होता है और नारकी जीव असंख्यात हैं, इसलिए यहाँ तिर्यवायुके भुजगार और अल्पतर पदवाले जीवोंका सर्वदा काल नहीं बन सकता । यही कारण है कि यहाँ इसका भङ्ग ओघसे नरकायुके समान जाननेकी सूचना की है। सब नारकियोंमें इसीप्रकार अपनी-अपनी प्रकृतियोंका विचारकर काल घटित कर लेना चाहिए ।
१६८. तिर्यश्वों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के तीन पदवाले जीवों का काल सर्वदा है । शेष प्रकृतियों का भङ्ग ओघके समान है । पश्वेन्द्रिय तिर्यवत्रिक में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार १. ता०प्रतौ 'ज० ए० आवलि०' इति पाठः । १ ता०प्रतौ 'ओघं । णिरयाउभंगो मणुसाउ० ' इति पाठः ।
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