Book Title: Mahabandho Part 7
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 249
________________ २२८ महाबंधे पदेसबंधाहिवारे २६५. सव्वअपज्जत्तगाणं तसाणं थावराणं च सम्वएइंदिय-विगलिंदिय-पंचकायाणं धुविगाणं अत्थि चत्तारिवड्डी चत्तारिहाणी अवविदबंधगा य । सेसाणं अत्थि चत्तारिवड्डी चत्तारिहाणी अवढि० अवत्तव्वबंधगा य ।। २६६. ओरालियमि० अपजत्तभंगो। गवरि देवगदिपंचगस्स अत्थि असंखेंजगुणवड्विबंधगा य । सेसाणं णत्थि । वेउव्वियमि०-आहारमि०-कम्मइ०-अणाहारगेसु धुविगाणं एक्कवड्डी । सेसाणं परियत्तमाणियाणं अत्थि असंखेंजगुणवडि० अवत्तव्वबंधगा य । ___२६७. इत्थि०-पुरिस०-णस०-कोधेसु पंचणाणावरणीयाणं चदुदं०-चदुसंज०पंचंत० अवत्त० णत्थि । सेसपदा अस्थि । सेसाणं पगदीणं ओघं । एवं माणे । णवरि पंचणा०-चदुदंस०-तिण्णिसंज०-पंचंतः । एवं मायाए । णवरि पंचणा०-चदुदंस०दोसंज०-पंचंत० । एवं लोभे । णवरि पंचणा०-चदुदंस०-पंचंत० । अवगदवे० पंचणा०चदुदंस०-सादा०-चदुसंज-जसगि०-उच्चा०-पंचंत० अत्थि चत्तारिवड्डी चत्तारिहाणी अवविद० अवत्तव्वबंधगा य । स्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सब देव, वैक्रियिककाययोगी, असंयत और पाँच लेश्यावाले जीवोंमें जानना चाहिए । २६५. त्रस और स्थावरके सब अपर्याप्तक, सब एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीव हैं । शेष प्रकृतियोंकी चार वृद्धि, चार हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव हैं। २६६. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें अपर्याप्तक जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि देवगतिपञ्चककी असंख्यातगुणवृद्धिके बन्धक जीव हैं। शेष पदोंके बन्धक जीव नहीं हैं। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी एक वृद्धि है । शेष परावर्तमान प्रकृतियोंकी असंख्यातगुणवृद्धि और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव हैं। २६७. स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी और क्रोधकषायवाले जीवों में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायका अवक्तव्य पद नहीं है। शेष पद हैं। तथा इनमें शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार मानकषायवाले जीवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, तीन संज्वलन और पाँच अन्तरायका अवक्तव्यपद नहीं है । इसी प्रकार मायाकषायवाले जीवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, दो संज्वलन और पाँच अन्तरायका अवक्तव्यपद नहीं है । इसी प्रकार लोभकषायवाले जीवों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायका अवक्तव्यपद नहीं है। अपगतवेदवाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायकी चार वृद्धि, चार हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव हैं। १. ताप्रती 'पंचलेस्सा सव्वअपजत्तगाणं तसाणं थावराणं च । सव्वएइंदिय-' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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